कबीर दास

kabir das | कबीर दास

kabir das ‘कबीर’ ने जो कुछ कहा है, वह स्वानुभूति के बल पर कहा है, फलतः उनकी वाणी में बड़ी सहजता एवं मार्मिकता है, जो हृदय पर सीधी चोट करती है। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, इसलिए कुछ लोग उनकी भाषा को अनगढ़ कहते हैं। वास्तव में उनकी भाषा में कृत्रिमता नहीं है।

व्यापक देशाटन के कारण उनकी भाषा में विभिन्न प्रादेशिक बोलियों का सम्मिश्रण मिलता है। उन्होंने स्वयं अपनी भाषा की ‘पूरबी’ कहा है, परन्तु उसमें अवधी, ब्रज खड़ी बोली, राजस्थानी, पंजाबी, संस्कृत, फारसी आदि का मिश्रण दिखाई पड़ता है।

इसी कारण आचार्य शुक्ल जैसे विद्वान उनकी भाषा को ‘सी’ या ‘पचमेल खचड़ी’ कहते हैं। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी भाषा पर kabir das  का आसाधारण अधिकार मानते हैं। वे वाणी के डिक्टेटर है। जिस बात को उन्होंने जिस रूप से प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है।

इन संतों को परंपरा का निर्माता माना जाता है। किंवदंती के अनुसार, महात्मा रामानंद  के आशीर्वाद के तहत, उनका जन्म 1455 में एक ब्राह्मण विधवा के गर्भ से कशी  में हुआ था। माता  ने अपने बेटे को जन्म लेते ही घोर शर्मिंदगी के कारण छोड़ दिया। निरु और नीमा नाम का एक मुस्लिम जोड़ा इस  परित्यक्त बच्चों को पालने के लिए घर ले आया। लड़के को कबीर के नाम से जाना जाता है। उनकी पत्नी का नाम लोई है और उनके दो बेटे कमल और कमली भी हैं। वे खुद को बुनकर मानते हैं। उनके गुरु महात्मा रामानंद हैं। उन्होंने अपने गुरु से रामनाम की दीक्षा बड़ी बुद्धिमानी से प्राप्त की थी। यद्यपि वह स्वयं शिक्षित नहीं है पर , उनके  पास सहज ज्ञान है।

घरवाले kabir das से कड़ा परिश्रम करवाना चाहते थे, परन्तु प्रारम्भ से ही घर के काम-काज में इनका मन बिल्कुल नहीं लगता था। ये जन्मजात भक्त थे। नाम जप और भजन-कीर्तन में इनका मन बहुत लगता था। एक तरह से संसार से विरक्ति की अवस्था इन्हें स्वभाव से ही प्राप्त थी। इनकी मृत्यु बढ़े रहस्यमय ढंग से हुई। लोग कहते हैं कि काशी में मरने से मोक्ष मिलता है और मगहर में मृत्यु होने से मुक्ति नहीं मिलती। इस अन्धविश्वास को लक्ष्य करके उन्होंने कहा- “जो कबिरा कासी मरे तो रामैं कौन निहोर ।” मृत्यु निकट आने पर ये मगहर चले गये । वहीं इनकी मृत्यु सन् 1518 में हुई।


kabir das कबीर दास जी का संछिप्त परिचय 

नाम संत कबीर दास 
जन्म 1398 ईस्वी 
जन्म स्थान लहरतारा ताल , काशी
पिता निरु 
माता नीमा 
पुत्र व् पुत्री कमल व् कमली 
रचनाएँ साखी, सबद, बीजक 
भाषा सधुक्कड़ी
गुरु रामानंद 
मृत्यु कब और कहाँ 1518 ई०, मगहर ( उत्तर प्रदेश )

 


kabir das (कबीर) पर प्रभाव 

kabir das ‘कबीर’ रामानन्द के शिष्य थे। उनसे इन्होंने निर्गुण ब्रह्मवाद, दयाभाव, अहिंसा और मांस नहीं भक्षण करने की शिक्षा ली। शंकराचार्य से अद्वैतवाद और मायावाद का उपदेश ग्रहण किया। वामपंथी साधुओं से वेद, ब्राह्मण, पण्डितों का विरोध और हठयोग की साधना ग्रहण की और सूफियों से प्रेम की पीर प्राप्त की। स्वभाव – कबीर सत्य के अन्वेषक थे। ये बड़ ही निर्भीक और स्वतन्त्र प्रकृति के महात्मा थे।

ये पण्डित मुल्ला, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छुआछूत. तीर्थ-व्रत, कर्म कांड, अवतारवाद सभी के कट्टर विरोधी थे। विचारों की संकीर्णता के लिए हिन्दू मुसलमान दोनों ही को इन्होंने खूब फटकारा है; जैसे

  • कबिरा दुनिया बावरी, पाथर पूजन जाय ।

          घर की चकिया कोई न पूजे, जाका पीसा खाय ।।

  • कंकड़ पत्थर जोरि के, मसजिद लई बनाय ।

          तापर मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय ||

  • ब्राह्मण से गदहा भला, आन देव ते कुत्ता।

         मुल्ला से मुरगा भला, सहर जगावे सुत्ता ॥


kabir das(कबीर) के सिद्धान्त 

कबीर ने वैष्णवों, मुसलमानों, सूफियों, सहजयानियों, नागपंथियों बादि में से प्रत्येक से तत्त्व की बातें ग्रहण की। उनकी त्रुटियों एवं कमजोरियों से दूर रहे। वास्तव में इनका उद्देश्य शुद्ध ईश्वर प्रेम की प्राप्ति और सात्विक जीवन का प्रचार करना था।

जीव और ब्रह्म की एकता में इनका पूरा विश्वास था । रहस्यवाद की भावना इनमें अधिक है। ये आत्मा को स्त्री और परमात्मा को पुरुष-रूप मानते हैं। इन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा है :

सपने में प्रियतम मिले, सोता लिया जगाय ।

आँख न खोलू डर लगे, मत सपना ले जाय ।।

‘हरि मोरे पीउ मैं राम की बहुरिया ।

”घूघट का पट खोल रे तोको पीउ मिलेंगे ।

इनके राम ‘दशरथ सुत’ राम नहीं हैं। इनका राम निराकार ब्रह्म का बोध कराता है। कवि कबीर राम का वह स्वरूप जनता के सामने रखना चाहते थे जो हिन्दू-मुसलमान दोनों को समान रूप से ग्राह्य हो । वे कहते हैं :-

कहैं कबीर एक राम जपहु रे, हिन्दू तुरक न कोई ।


kabir das(कबीर) ज्ञान

जीव और माया के सम्बन्ध में कबीर के विचार हिन्दू धर्म के अनुकूल हैं माया का अपने यहाँ महत्व है। कनक और कामिनी माया के रूप हैं। इनका ही सहारा लेकर माया अपना जाल फैलाती है और जीव को परमात्मा से मिलने नहीं देती। कबीर की उक्ति है :

माया के बस जग जरै, कनक कामिनी लाग ।

कह कबीर कस बाचिहैं, रुई लपेटी आग ॥

माया का परदा हटा दिये जाने पर ही आत्मा का मिलन परमात्मा से हो सकता है। ज्ञान रूपी बाँधी से ही माया की टाटी उड़ाई जा सकती है :

सन्तों भाई आई ज्ञान की आंधी रे ।

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया सकी बाँधी रे ॥

न कहीं-कहीं अन्योक्तियों का सहारा लेकर कबीर ने माया, जीव और ब्रह्म का सुन्दर सम्बन्ध दिखाया है –

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर-भीतर पानी ।

फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना, यह तथं कथं गियानी ।

प्रियतम के विरह से बनी स्थिति का चित्रण कर कवि ने अपने ईश्वर प्रेम की अनन्यता का परिचय इस प्रकार दिया है :

नैना अन्तर आव तू, पलक झाँपि तोहि लेखेँ ।

ना मैं देखू और को, ना तोहि देखन देखेँ ।

कबीर का प्रियतम सुन्दरता की खान है। उसकी अनन्त सुन्दरता सर्वत्र व्याप्त है। एकरूप होकर वह स्वयं भी अपने को पूर्ण रूप से उसी में लीन कर देता है—

लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल ।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

प्रभु-मिलन के अनुभूति सम्बन्धी वर्णनों में कबीर की सहृदयता फूट पड़ी है। और कवित्व की सुन्दर अभिव्यञ्जना हुई है। प्यारे से एक बार मिल जाने पर उसे विलग न होने देने की उत्कण्ठा देखते ही बनती है :

अब तोहि जान न देहूँ राम पियारे, ज्यों भावै त्यों होउ हमारे ।

बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घर बैठे आये ।

उपर्युक्त वर्णनों से स्पष्ट है कि निर्गुणवादी होने पर भी कबीर की शैली में शुष्कता नहीं सरसता है। विषय को बोधगम्य बनाने के लिए वे शृंगार का पुट देते चलते हैं। प्रिय मिलन के लिए दुलहिन को सेज सँवारने का आदेश देते हैं और भर जौवन पिय अपन न चिह्ना’ के लिए उसकी भर्त्सना भी करते हैं।


कबीर पन्थियों का विश्वास व् साहित्य में स्थान 

kabir das (कबीर) का प्रामाणिक ग्रन्थ ‘कबीर बीजक’ माना जाता है। इसमें रमैनी, साखी तथा पद संग्रहीत हैं। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, परन्तु उनका हृदय ज्ञान की ज्योति से जगमगाता था। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने kabir das के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि वे सिर से पैर तक मस्तमीला थे।

मस्त जो पुराने कृत्यों का हिसाब नहीं रखता, वर्तमान कमों को सर्वस्य नहीं समझता और भविष्य में सब कुछ झाड़-फटकार निकल जाता है। जो दुनियादार किये-कराए का लेखा-जोखा दुरुस्त रखता है, वह मस्त नहीं हो सकता। जो इश्क का मतवाला है, यह दुनिया के माप-जोख से अपनी सफलता का हिसाब नहीं करता ।

डॉ० रामकुमार वर्मा ने कबीर को प्रतिभा की चर्चा करते हुए लिखा है, ‘इसमें सन्देह है कि कबीर की कल्पना के सारे चित्रों को समझने की शक्ति किसी में आ सकेगी अथवा नहीं। जो हो, कबीर का बीजक पढ़ जाने के बाद यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि कबीर के पास कुछ ऐसे चित्रों का खजाना है, जिसमें हृदय में उथल-पुथल मचा देने की बड़ी भारी शक्ति है। हृदय आश्चर्यचकित होकर कबीर की बातों को सोचता ही रह जाता है।”

kabir das को हिन्दी काव्य-क्षेत्र में निर्गुण धारा का प्रवर्तक माना जाता है। ज्ञानाथपी काव्यधारा के साथ-साथ समाज-सुधारक भी थे। वे मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते थे

मनुआ कैसा, बारा, पाथर पूजन जाइ |

बाते पर चक्की भली, जाका पीसा खाइ ।।

कबीर  उच्चकोटि के साधक थे। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, ‘साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरु थे और साहित्य के क्षेत्र में भविष्यमष्टा ।’ एक अन्य विद्वान् ने उन्हें ‘मानवता का प्रथम कवि’ कहा है। कबीर भक्त कवि, उपदेशक, साधु और सन्त सभी कुछ थे ज्ञान की खोज ने उनका सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हुआ।

उन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया था। सांसारिक आकर्षण उन्हें अपनी और आकर्षित करने में असमर्थ थे। उन्होंने कविता के लिए कविता की रचना नहीं की। उन्हें न पांडित्य प्रदर्शन की लालसा थी और न आचार्य बनने की अभिलाषा ही।

कबीर के काव्य में ईश्वरीप प्रेम की अभिव्यक्ति अत्यन्त सशक्त रूप में मिलती है। उनके अनुसार मानव जीवन की सार्थकता ईश्वर-दर्शन में है। कबीर ने निर्गुण ईश्वर को ‘राम’ कहकर पुकारा है। kabir das के अनुसार राम को सच्चे प्रेम से ही पाया जा सकता है।

कबीर कहते हैं कि प्रेम का नाम तो बहुत लोग लेते हैं, पर सच्चा प्रेम क्या है, इसे नहीं जानते । आठो पहरे राम के ध्यान में डूबे रहना ही सच्चे प्रेम का लक्षण है।

आठ पहर मीना रहे प्रेम कहावे सोच ।

राम की बाट जोहते-जोहते साधक की आंखों में झांई पड़ जाती है तथा उसकी जीभ में छाले पड़ जाते हैं

अंखड़ियाँ झांई पड़ी, पंथ निहारि निहारि ।

जीभड़ियां छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि ।।

भक्त प्रतीक्षा करते-करते अधीर हो उठता है। प्रियतम का विरह उसके लिए असा हो जाता है। वह विरह की अग्नि में स्वयं को जला डालने का निश्चय करता है ।

यह तन जारी मसि करो, ज्यूं पूआं जाय सरगि ।

मति वे राम दया करें, बरसि बुझायें अगि ।।

इस प्रकार kabir das ने प्रेम-साधना की ऐसी व्यंजना की है कि पाठक उसमें पूरी तरह से डूब जाता है। कबीर पर वेदान्त के अतिरिक्त हठयोग का प्रभाव भी दिखाई पड़ता है। सूक्ष्म तत्व का वर्णन करते हुए कबीर ने कहा है-

जा के मुँह माया नहीं, रा ही रूप कुरूप ।

पुहुप बास से पातरा, ऐसो तत्त्व अनूप ।।


कबीर के साहित्य की विशेषता

kabir das का साहित्य रचयिता के साहित्यिक गुणों का प्रदर्शन करने के लिए नहीं वरन् जन-जीवन को उचा उठाने के लिए लिखा गया है। उसमें आध्यात्मिक उड़ान की झाँकी के साथ ही लौकिक उपदेश भरा पड़ा है। उलझी हुई भाषा में होने के कारण आध्यात्मिक अनुभव अस्पष्ट हैं।

सामान्य जीवन सम्बन्धी लौकिक उपदेश नपे-तुले शब्दों में तथा सुलझी हुई भाषा में कहे गये हैं। कवि की सम्पूर्ण बानी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग रमैनी, साखी और सबद हैं। नित्य पाठ करने के लिए दोहा-चौपाई में लिखी रचना ‘रमैनी’ है।

नीति और लोक व्यवहार सम्बन्धी उपदेश ‘साखी’ में हैं। कवि के सिद्धान्तों और आध्यात्मिक अनुभवों की बातें पदों में हैं, जिन्हें ‘सबद’ कहते हैं । सम्पूर्ण साहित्य में कवि का शक्तिशाली व्यक्तित्व झाँकता हुआ दिखलाई देता है ।

कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, पर बहुश्रुत अवश्य थे। अपने उच्च ज्ञान के लिए उनमें अहंभाव था। इसे उन्होंने जहाँ-तहाँ व्यक्त किया है। जनता का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए और अपने उपदेशों से उसे प्रभावित करने के लिए वे बड़ी ऊंची-ऊंची बातें उलटवासियों के माध्यम से कह जाते हैं।

इनसे कभी-कभी साधना के गूढ़ तत्वों का स्वरूप निर्धारण होता है; जैसे

“बैल बियाय गाय भइ बाँझ, बछरा दूहे तीनों साँझ । ”

उनका उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित करना और देश के सामाजिक जोवन के स्तर को ऊंचा उठाना था। उनका साहित्य उनके उद्देश्य को पूर्ण करने में सहायक सिद्ध हुआ ।


कबीर की भाषा और शैली

kabir das की भाषा ब्रज, राजस्थानी, पंजाबी, अवधी, भोजपुरी, खड़ीबोली, अरबी, फारसी आदि के मेल से बनी है। इसे ‘खिचड़ीभाषा’ या ‘सधुक्कड़ी भाषा’ कह सकते हैं। इसमें एकरूपता का सर्वथा अभाव है;

जैसे चली मैं खोज में पिय की, मिटी नहि सोच वह जी की । रहे नित पास ही मेरे, न पाऊँ यार को हेरे ।

सूतल रहलूँ मैं नींद भरि हो, पिया दिहलें जगाय । चरन कँवल के अंजन हो, नैना लिहलीं लगाय ॥


कबीर दास कुछ दोहों को देखिये जो भाव रस से परिपूर्ण है –

दुख में सुमिरन सब करैं, सुख में करै न कोय ।

जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय ॥

भावार्थ– कबीर जी कह रहे हैं कि दुःख में प्रायः सभी परमात्मा का सुमिरन करते हैं लेकिन भौतिक सुखों में खोकर परमात्मा को भूल जाते हैं और उनकी सांसारिक सुखों में लिप्तता बढ़ती जाती है। साहिब समझा रहे हैं कि अगर तू इन सांसारिक सुखों में लिप्त न होकर परमात्मा को भूले नहीं तो दुःखरूपी छाया का तुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

अर्थात् – सुख और दुःख तो आने-जाने हैं। जो सुखी है वह दुखी भी होगा। धन की प्राप्ति पर जितना हर्ष होता है उससे ज्यादा दुःख धन के चले जाने पर होता है। अष्टावक्र महागीता में गुरु अष्टावक्र जनक को समझाते हुए कहते हैं-हर्ष और द्वेष से रहित ज्ञानी संसार के प्रति न द्वेष करता है और न आत्मा को देखने की इच्छा करता है, वह न मरा हुआ है और न जीवित है।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । 

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ।।

भावार्थ– साहिब कह रहे हैं-तुझे माला फेरते हुए (भगवत भजन ) कितना समय बीत गया, फिर भी तेरा मन पवित्र नहीं हुआ अर्थात् तूने काम, क्रोध, लोभ, मोह, विषय भोगों को नहीं त्यागा। अतः तू यह दिखावे की माला फेरनी छोड़ दे (अर्थात्-तेरी कथनी और करनी में अन्तर नहीं होना चाहिए) और धीर पुरुष बनकर परमात्मा के चरणों में अपने मन को स्थिर कर ले।

कबिरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की बास ।

जो कछु गंधी दे नहीं, तो भी बास सुबास ॥

भावार्थ– साहिब कह रहे हैं-अच्छे मनुष्य कभी किसी का अपकार नहीं करते, अपितु वे सदा सबका उपकार ही करते रहते हैं। वे अच्छे मार्गपर स्वयं चलते हैं और दूसरों को भी चलने की प्रेरणा देते हैं। यही सच्चा सुख है और यश का मार्ग है।

अच्छे मनुष्यों के साथ रहने से अपने आप कीर्ति प्राप्त होती है। सत्संग (साधुजनों के संग) से मन में स्वतः गुणों का स्फुरण होने लगता है और अच्छे गुण अंकुरित और पल्लवित होने लगते हैं। दुष्टों की संगति में कभी सुख नहीं मिलता और अपने बने काम भी बिगड़ जाते हैं और नाना प्रकार के दुखों का सामना करना पड़ जाता है तथा अपयश का भागी बन जाता है। कभी-कभी तो ऐसी भीषण परिस्थिति बन जाती है कि लेने के देने पड़ जाते हैं।

तिनका कबहु न निंदिए, जो पाँव तले होय ।

कबहुं उड़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय ॥

भावार्थ -साहिब कह रहे हैं कि एक तिनके को भी कभी छोटा समझ कर उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए जोकि आपके पांव तले आ गया हो। अगर यह उड़कर आपकी आंख में पड़ गया तो आपको काफी कष्ट दायक स्थिति से गुजरना पड़ सकता है। अर्थात् जीवन में छोटी-छोटी भूलों को भी कभी अनदेखा न करना चाहिए और समय रहते उन भूलों को सुधार लेना चाहिए, नहीं तो ये भूलें ही एक दिन जीवन को तहस-नहस कर सकती

साईं इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय ।

मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय ॥

भावार्थ-साहिब कह रहे हैं-हमें जितना भी परमात्मा ने दिया है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। इससे ही कुटुम्ब का भरण-पोषण भली प्रकार हो सकेगा। न तो वह स्वयं भूखा रहेगा और न कोई साधु (भिक्षुक) भी उसके घर से असंतुष्ट होकर जाएगा।

राम नाम की लूट है लूटि सके तो लूट ।

पाछे फिर पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट ॥

भावार्थ-साहिब कह रहे हैं-अरे अज्ञानी, भोगों में लिप्त न हो, ये तू तो सभी नाशवान हैं, आज जो वस्तुएं तेरे पास हैं, कल किसी और के पास होंगी। अगर तू सच्चा धन ही कमाना चाहता है तो इस राम नाम8 रूपी रत्न धन को प्राप्त कर ले। नहीं तो जब तू लाचार हो जाएगा, कब्र में तेरे पैर लटके होंगे तो सोच-सोचकर बहुत पछतायेगा।

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।

माली सींचे सौ घड़ी, ऋतु आए फल होय ॥

भावार्थ– साहिब कह रहे हैं कि हे मन ! धीरे-धीरे ही सब कुछ होता है। जो माली बड़े जतन से अपने बाग के पेड़ों को सही समय पर सींचता रहता है तो अपनी ऋतु आने पर वे पेड़ उसको अच्छे फल देते हैं।

अर्थात्-हे मन, तू इधर-उधर मत भटक, प्रभु की लौ में लग जा । जब तू प्रभु भजन में लगा रहेगा तो तू सांसारिक माया-मोह के जाल से निकल जाएगा और तुझे भगवत प्राप्ति हो जाएगी। इसलिए तू हरि भजन में ही लगा रह।

पांच पहर धंधे गया, तीन पहर गया सोय ।

एक पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति कैसे होय ।।

भावार्थ– साहिब कह रहे हैं- तूने ! दिन के आठ पहरों में से पांच पहर तो अपने गोरखधन्धे में गंवा दिए और बाकी बचे तीन पहरों में नीद की आगोश में सोया रहता है। तूने तो आठ पहरों में से एक पहर भी भगवत नाम के लिए सुरक्षित नहीं रखा। फिर भी तू मुक्ति की चाह अपने मन में पाले हुए है, भला मुक्ति कैसे संभव है। अरे भले मानुष ! आठ पहरों में से एक पहर तो हरि का भजन कर ले, तभी तेरा जीवन सफल हो पायेगा अन्यथा मोक्ष की अभिलाषा अपने मन में मत पाल

कबिरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।

जब जम घर ले जाएंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥

भावार्थ– साहिब कह रहे हैं- अरे तू उठ, सोने से काम नहीं चलने वाला। उठकर परमात्मा का भजन कर अपनी इस सुन्दर काया पर इतना अभिमान मत कर, क्योंकि जब तेरा अन्त समय आएगा और यम के दूत काल के फांस में बांधकर तुझे तेरे असली घर ले जाएंगे तो तेरी आत्मा तो निजधाम को चली जाएगी और तेरी यह काया बिना म्यान की तलवार की भांति यहीं पड़ी रह जाएगी।

माया मरी न मन मरा, मर मर गए शरीर ।

आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

भावार्थ- साहिब कह रहे हैं-तेरे मन और उसमें घुसी बैठी माया का कभी नाश नहीं होता। तेरी आशाएं, इच्छाएं कभी विनष्ट नहीं होतीं, केवल दीखने वाला शरीर ही मरता है।

अर्थात् जिसके मन से आशाएं, इच्छाएं, तृष्णाएं नहीं मिटतीं, ऐसा जीव दुःख रूपी समुद्र में डूबता-उतराता ही रहता है।

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।

हीरा जन्म अनमोल था, कौड़ी बदले जाय

भावार्थ– साहिब कह रहे हैं कि रात तो तूने सोने में व्यतीत कर दी और दिन खाने-पीने में व्यतीत कर दिया। भला यही सब करने के लिए तुझे यह मानुष जन्म मिला था। तू क्यों व्यर्थ ही इस अनमोल जीवन को व्यर्थ गंवा रहा है।

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