Tenali Raman stories

Tenali raman stories – दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य में स्थित विजयनगर साम्राज्य के सम्राट थे कृष्णदेव राय, जो अपने समय के एक प्रतापी और अत्यंत लोकप्रिय शासक हुए हैं। वे तुलुब वंश से संबंध रखते थे। कृष्णदेव राय का शासनकाल 1509 ई. से 1530 ई. तक था, जिसे विजयनगर का स्वर्णिम काल माना जाता है। तेनालीराम इन्हीं महाराज कृष्णदेव राय के दरबार में मुख्य विदूषक थे।

तेनालीराम कृष्णदेव राय के दरबार के रत्न थे। अन्य सभी दरबारी तेनालीराम से ईर्ष्या करते थे और हर समय इसी कोशिश में लगे रहते थे कि तेनालीराम को किस प्रकार महाराज की नजरों में गिराया जाए, किंतु तेनालीराम अपने बुद्धि चातुर्य से न केवल उनकी सभी चालों को असफल कर दिया करते थे, बल्कि महाराज की दृष्टि में और भी ऊपर उठ जाया करते थे तथा पहले से भी अधिक धन और सम्मान पा लिया करते थे।


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तेनाली राम की कहानियां- “कीमती फूलदान

tenali raman stories – महाराज कृष्णदेव राय के राज्य विजय नगर में वार्षिक उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। पड़ोसी राज्यों से उन्हें बहुत बहुमूल्य उपहार प्राप्त हुए। इन सभी उपहारों में सबसे कीमती, अनोखे व अद्भुत चार सतरंगी फूलदान थे। राजा ने वे चारों फूलदान अपने राजमहल में रखवा दिए। उस वार्षिक उत्सव में राजा ने अपने आसपास के राजाओं को भी आमंत्रित किया।

महाराज कृष्णदेव राय को वे फूलदान इतने पसंद आए कि उन्होंने उनकी हिफाजत के लिए अलग से एक सेवक तैनात कर दिया और उसे सख्त हिदायत दी कि यदि फूलदानों के रख-रखाव में किसी प्रकार की लापरवाही हुई या वे टूट गए तो उसे मृत्युदण्ड दिया जाएगा। रामसिंह नाम का एक सेवक दिन-रात उनकी रक्षा करता था।

उन पर धूल तक नहीं जमने देता था। लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि जब वह उन फूलदानों की सफाई कर रहा था तो अचानक उसके हाथ से छूटकर एक फूलदान नीचे फर्श पर गिरकर टूट गया।

महाराज को खबर मिली तो वे आग-बबूला हो उठे और उन्होंने तुरन्त आदेश जारी कर दिया कि रामसिंह नामक इस लापरवाह सेवक को आज से आठवें दिन फांसी दे दी जाए।

सैनिकों ने फौरन रामसिंह नामक उस सेवक को जेल में डाल

दिया। जब यह सूचना तेनालीराम को मिली तो वे महाराज के पास गए और बोले– “महाराज ! रामसिंह बीस वर्षों से महल की सेवा में है, उसे इतने मामूली नुकसान का इतना कठोर दण्ड देना उचित नहीं है।”
उस समय महाराज क्रोध में भरे बैठे थे, बोले– “तेनालीराम इस विषय में हम किसी की कोई भी बात नहीं सुनना चाहते। हमने जो आदेश दे दिया, वह अटल है।”

तेनालीराम अपना-सा मुंह लेकर रह गए, लेकिन मन-ही-मन उन्होंने सोच लिया कि चाहे कुछ भी हो, रामसिंह को मृत्युदण्ड नहीं मिलने देंगे।

वे तुरन्त कारागार में जाकर रामसिंह से मिले और उससे सारी बात पूछी। रोते हुए रामसिंह ने बताया कि वह कांच के उन फूलदानों की अपनी जान से भी अधिक हिफाजत करता था, किन्तु शायद उसका ही बुरा वक्त आ गया था कि फूलदान उसके हाथ से छूट गया।

तेनालीराम ने उसे ढांढस बंधाया, फिर उसके कान में एक बात कही। पूरी बात समझाकर बोले – “यदि तुम ऐसा करोगे तो कम-से-कम तीन लोगों के प्राण और बचा लोगे । ” तेनालीराम अपनी बात

कहकर चला गया। दिन तेजी से बीते और फांसी वाला दिन आ गया। उस दिन सभी फांसी गृह में एकत्रित हुए। महाराज भी आए। रामसिंह के प्रति उनके मन में अभी भी क्रोध था। वे अपनी आंखों से उसे फांसी पर झूलते देखना चाहते थे ।

रामसिंह को फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया। जल्लादों ने उससे उसकी अंतिम इच्छा पूछी। रामसिंह ने कहा—’ -“मैं बाकी बचे वे तीनों फूलदान भी देखना चाहता हूं, जिनकी वजह से मैं फांसी पर चढ़ाया जा रहा हूं। ”

जल्लादों ने महाराज की ओर देखा, महाराज ने आज्ञा दे दी। तुरन्त तीनों फूलदान उसके सम्मुख लाए गए।
रामसिंह ने आव देखा न ताव, वे तीनों फूलदान धरती पर पटककर चूर-चूरकर दिए। अब तो महाराज कृष्णदेव राय और भी अधिक क्रोधित हो उठे और क्रोध से थर-थर कांपते हुए बोले– “मूर्ख! ये कीमती फूलदान क्यों तोड़ दिए तुमने — क्या मिला तुम्हें इन्हें तोड़कर ?”

“तीन निर्दोषों का जीवन महाराज!” निडरता से रामसिंह बोला— “जिस प्रकार मैं निर्दोष इस एक फूलदान के कारण फांसी पर चढ़ाया जा रहा हूं, कभी-न-कभी मेरी तरह तीन और लोग भी फांसी पर चढ़ाए जा सकते थे—ये फूलदान मनुष्यों के जीवन से अधिक कीमती नहीं हैं महाराज।” रामसिंह की बात सुनकर महाराज कृष्णदेव राय जैसे नींद से जागे ।

एक पल के सौवें हिस्से से भी पूर्व उनके मस्तिष्क पर छाई क्रोध की सभी परतें हट गईं और उन्हें तुरन्त आभास हो गया कि क्रोध में वे कैसा अनर्थ करने जा रहे थे। उन्होंने फौरन रामसिंह की फांसी की सजा निरस्त कर दी ।

अगले दिन उन्होंने सुबह-सुबह रामसिंह को दरबार में बुलाकर पूछा- “सच-सच बताओ कि तुम्हें ऐसा करने की सलाह किसने दी थी?”

रामसिंह ने तेनालीराम की ओर देखा ।

महाराज कृष्णदेव राय सब कुछ समझ गए। फिर तेनालीराम से मुखातिब होकर बोले– “आज तुमने एक निर्दोष की जान तो बचाई ही है तेनालीराम, हमें भी क्रोध में विवेक न खोने देने की मूक सलाह दी है। तुम धन्य हो तेनालीराम, तुम धन्य हो।” ऐसा कहकर उन्होंने तेनालीराम को प्रेम से अपने गले लगा लिया।


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तेनाली राम की कहानी – बेगुनाही का सबूत

tenali raman stories – राजा कृष्णदेव राय के दरबार में कुछ दरबारी सदैव तेनालीराम को नीचा दिखाने की ताक में रहते थे। वे हमेशा तेनालीराम को महाराज की नजरों में गिराने का षड्यंत्र रचा करते थे। उन सब दरबारियों ने पिछले कई दिनों से तेनालीराम पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर महाराज के कान भरने आरम्भ कर दिए थे।

कई बार ऐसा होता है कि झूठी बात को भी यदि बार-बार दोहराया जाए तो वह भी सच लगने लगती है। पिछले कई दिनों से सब दरबारी महाराज के कान भरने पर लगे हुए थे। इस समय भी एक दरबारी महाराज के पास उपस्थित था । वह महाराज से बोला—“महाराज! यदि अभयदान दिया जाए तो कुछ कहूं। ” “हां-हां कहो क्या बात है?” महाराज बोले

“पहले आप अभयदान दें तो कहूं।” दरबारी डरते हुए बोला। “ठीक है, हमने तुम्हें अभयदान दिया, कहो!”

“महाराज!” दरबारी निडर होकर बोला – “मेरे सुनने में आया है कि आजकल तेनालीराम गलत तरीकों से खूब धन इकट्ठा कर रहे हैं, क्योंकि वे आपके परमप्रिय और कृपापात्र हैं, इसलिए उनकी शिकायत करने की कोई चेष्टा नहीं करता। बेचारी प्रजा दो पार्टों के बीच पिस रही है। एक ओर आपका भय है तो दूसरी ओर तेनालीराम की धमकियों का।”

दरबारी ने बड़ी चतुराई से महाराज के सम्मुख अपनी बात रखी। “ठीक है, हम तुम्हारी बात सत्यता की जांच कराएंगे। ” महाराज ने कहा।

महाराज को ज्ञात था कि दरबारी तेनालीराम से ईर्ष्या करते हैं,
इसलिए उनकी शिकायतें करते रहते हैं। अतः यह सोचकर वे हर बार बात को टाल दिया करते थे। इसके बाद भी यह क्रम बदस्तूर जारी था। महाराज बात टालते नहीं थकते थे और दरबारी तेनालीराम की शिकायतें करते नहीं थकते थे।

लेकिन अगर किसी झूठी बात को बार-बार कहो तो वह भी सच लगने लगती है। एक दिन बैठे-बैठे महाराज कृष्णदेव सोचने लगे—’कहीं ऐसा तो नहीं कि दरबारी सत्य बोल रहे हों और हम तेनालीराम के प्रति सौहार्द के कारण बात को टालकर कोई अनर्थ कर रहे हों। जिस प्रकार लगातार तेनालीराम की शिकायतें आ रही हैं, उससे तो यही प्रतीत होता है कि हमारे नर्म स्वभाव और सम्मान का तेनालीराम अनुचित लाभ उठा रहे हैं। किसी ने सच ही कहा है, इंसान की बुद्धि बदलते देर नहीं लगती। लगता है, तेनालीराम को दंड देना ही पड़ेगा। अन्यथा प्रजा मेरे न्याय पर शक करेगी।’

ये विचार मन में आते ही महाराज ने अगले ही दिन तेनालीराम को दरबार में बुला लिया और कहा – “तेनालीराम ! हमें लगातार दो माह से तुम्हारे विरुद्ध शिकायतें मिल रही हैं कि तुमने राज्य में घूसखोरी और लूट-पाट का बाजार गर्म किया हुआ है।” “घूसखोरी! महाराज! मैं और घूसखोरी ? महाराज! ये तो उसी

प्रकार नामुमकिन है, जिस प्रकार नदी के दो किनारों का मिलना। ” “हम भी यह बात जानते हैं, तभी इतने दिनों से शांत हैं, किंतु अब तुम्हारी और शिकायतें नहीं सुनी जातीं । अतः या तो तुम अपनी ईमानदारी का प्रमाण दो, अन्यथा अपने पद का त्याग करो।”

महाराज के मन की वेदना को तेनालीराम ने तुरंत भांप लिया। वह समझ गया कि दरबारियों ने महाराज को झूठी कथाएं सुनाकर बहका दिया है। इसीलिए महाराज को यह सब कहना पड़ा। मुझे इस साजिश से पर्दा हटाना ही पड़ेगा। उधर तेनालीराम को महाराज द्वारा अपमानित करवाकर उनके विरोधी बेहद प्रसन्न थे। फिलहाल तेनालीराम की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

अतः वह अपने आसन पर चुपचाप बैठा था। दरबार की कार्यवाही समाप्त होने पर महाराज ने तेनालीराम को पुनः स्मरण कराया कि उसे अपनी ईमानदारी का प्रमाण देना है। तेनालीराम चुपचाप अपने घर चल दिए। अगले दिन जैसे ही दरबार लगा, वैसे ही तेनालीराम का नौकर आंखों में आंसू लिए दरबार में उपस्थित हुआ। उसने एक पत्र मंत्री को सौंप दिया। दरबार में उपस्थित सभी दरबारियों ने आश्चर्य से एक-दूसरे की ओर देखा। मंत्री ने पत्र महाराज की ओर बढ़ाया। महाराज बोले– “पत्र पढ़ा जाए। इसमें अवश्य तेनालीराम के निर्दोष होने का प्रमाण है। ” मंत्री पत्र खोलकर पढ़ने लगे ।

‘महाराज,

शत-शत प्रणाम ।

कल मुझ बेकसूर को भरे दरबार में लज्जित होना पड़ा। मेरे दरबारी साथी भी मेरे खिलाफ यह आरोप सुनकर चुप बैठे रहे, जिससे मुझे ऐसा लगा कि मैं उनकी नजरों में कसूरवार हूं। महाराज! मुझ जैसे ईमानदार और सत्यवादी व्यक्ति के लिए ऐसी अपमानजनक स्थिति बेहद कष्टदायक है। ऐसे अपमानजनक जीवन से तो मृत्यु अति श्रेष्ठ है, इसलिए मैं स्वयं को नदी की भेंटू चढ़ा रहा हूं। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि महाराज के नेतृत्व में विजय नगर का राज्य खूब प्रगति करे ।

आपका सेवक तेनालीराम’

पत्र की व्यथा सुनने के बाद महाराज ने अपनी आंखें बंद कर लीं।

आंसुओं की धार उनकी आंखों से उनके गालों तक पहुंच गई। फिर वे दुखी मन से बड़बड़ाए — “हे ईश्वर! मैं यह क्या अनिष्ट कर बैठा? अब मुझे तेनालीराम जैसा चतुर और निष्ठावान सेवक कहां मिलेगा ?”

“आप बिल्कुल सही कहते हैं महाराज!” तेनालीराम का पक्षधर एक दरबारी व्यथित मन से बोला – “तेनालीराम बहुत चतुर थे। उनकी कमी को पूरा कर पाना असम्भव है। वे बुद्धिमान, ईमानदार और सत्यवादी थे। वे सबके हितैषी और खुशदिल व्यक्ति

थे। ” धीरे-धीरे दरबारियों द्वारा तेनालीराम की प्रशंसा की जाने लगी। तेनालीराम का अहित चाहने वाले भी उनकी प्रशंसा करते नहीं थक रहे थे। पूरे दरबार में तेनालीराम का गुणगान हो रहा था।

इधर महाराज को भी अपनी भूल का अहसास हो रहा था, लेकिन अब किया भी क्या जा सकता था। उन्होंने आदेश दिया — “आज की यह सभा शोक सभा के रूप में होगी। आप सभी तेनालीराम की आत्मा की शांति के लिए सच्चे मन से भगवान से प्रार्थना करें। आज हम तेनालीराम के गुणों की चर्चा करके उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देंगे।”

महाराज की आज्ञा का पालन हुआ। राज्य का झंडा झुका दिया गया।

एक-एक करके सभी ने तेनालीराम के बारे में कुछ-न-कुछ कहकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। फिर तेनालीराम की अच्छाइयों की चर्चा शुरू हो गई। सभी दरबारीगण तेनालीराम की प्रशंसा कर रहे थे।

यहां तक कि दरबारियों ने यह भी स्वीकार किया कि उन पर लगाया गया भ्रष्टाचार का आरोप बिल्कुल झूठा था। उनका अहित चाहने वालों ने उन्हें महाराज की नजरों में गिराने की साजिश की थी। तभी दरबारियों के बीच बैठा एक नकली वेशधारी व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और अपना लिबास उतारकर फेंकते हुए बोला – “महाराज की जय हो! महाराज! न केवल आपने तथापि दरबारियों ने भी मुझे निर्दोष एवं ईमानदार बताया है। मेरी ईमानदारी और बेगुनाही का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा महाराज!”

सभी ने देखा कि वह नकली वेशधारी युवक और कोई नहीं, बल्कि तेनालीराम है ।

तेनालीराम को सामने देखकर उससे ईर्ष्या करने वाले दरबारी बौखला गए। दूसरी ओर उसके हितैषियों और महाराज का दिल खुशी से झूम उठा।

महाराज कृष्णदेव प्रसन्न होकर बोले—“तेनालीराम! तुम्हें कोई नहीं हरा सकता। तुम्हारी बुद्धिमानी के सामने कोई नहीं ठहर सकता। तुमने सिद्ध कर दिया कि तुम बेकसूर और ईमानदार हो और ऐसा तुमने अपना अहित चाहने वालों के मुंह से ही कहलवाया है। तुम महान हो तेनालीराम !”

महाराज ने दरबारियों की ओर देखा, उनके सिर शर्म से झुके हुए थे।

इधर तेनालीराम प्रसन्नता से मुस्करा रहे थे।

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तेनाली राम की कहानी आप सोचें कि हम खा रहे हैं

tenali raman stories – बात उस समय की है, जब तेनालीराम का दरबार से कोई संबंध नहीं था। तेनालीराम ने सुन रखा था कि महाराज कृष्णदेव राय गुणवानों और चतुर लोगों का बड़ा सम्मान करते हैं। एक दिन उन्होंने सोचा— ‘क्यों न महाराज के दरबार में जाकर भाग्य आजमाया जाए। किंतु बिना किसी सिफारिश के राजा के पास जाना बहुत मुश्किल था । तेनालीराम किसी ऐसे मौके की तलाश में रहने लगा, जब कभी उसकी भेंट किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति से हो सके।

इस दौरान तेनालीराम का विवाह मगन्मा नाम की एक लड़की से हो गया। एक वर्ष पश्चात उसके यहां एक पुत्र ने जन्म लिया।

इन्हीं दिनों राजा कृष्णदेव राय के राज्य का राजगुरु ताताचारी तेनालीराम के पास मंगलगिरी नामक स्थान पर आया। वहां रामलिंग (तेनालीराम) ने उसकी बड़ी सेवा की और अपनी समस्या कह सुनाई।

राजगुरु बड़ा धूर्त था। उसने तेनालीराम से बहुत सेवा करवाई और साथ ही उसे झूठे आश्वासन भी देता रहा। तेनालीराम ने उसकी बातों पर विश्वास कर उसकी दिन-रात बहुत सेवा की।

राजगुरु बाहर से तो मीठी-मीठी बातें करता, परंतु मन-ही-मन तेनालीराम से ईर्ष्या करता। उसने सोचा- ‘इतना चतुर और विद्वान व्यक्ति राजा के दरबार में आ गया तो उसकी अपनी साख समाप्त हो जाएगी।’ परंतु जाते समय उसने तेनालीराम को विश्वास दिलाकर कहा— “जब भी उचित अवसर मिलेगा, मैं तुम्हें दरबार में उपस्थित होने के लिए बुलवा लूंगा।”
तेनालीराम बड़ी उत्सुकता से राजगुरु के बुलावे की प्रतीक्षा करने लगा, लेकिन बुलावा न आना था और न ही आया। उसके पड़ोसी उससे व्यंग्य से पूछते — “क्यों भाई रामलिंग! जाने के लिए सामान बांधा या नहीं?”

कोई कहता – “मैंने सुना है, राजा ने विजयनगर से एक विशेष दूत तुम्हें बुलाने के लिए भेजा है। ” तेनालीराम उनकी बातों का उत्तर देता- “समय आने पर सब होगा।”

धीरे-धीरे राजगुरु पर से उसका विश्वास उठ गया। काफी समय तक तेनालीराम राजगुरु के बुलावे की प्रतीक्षा करता रहा। अंत में निराश होकर उसने फैसला किया कि वह स्वयं विजयनगर जाएगा।

उसने अपना घर तथा सारा सामान बेच दिया और अपनी मां, पत्नी और बच्चों को लेकर विजयनगर के लिए चल पड़ा। रास्ते में जहां कहीं भी कोई अड़चन आती तो तेनालीराम यह कह देता– ‘मैं राजगुरु का शिष्य हूं।’

वह अपनी मां से बोला – “देखा मां! राजगुरु का नाम लेते ही मुश्किल कैसे हल हो गई। व्यक्ति चाहे जैसा भी हो, परंतु उसका नाम व पद ऊंचा हो तो सारी समस्या दूर हो जाती है। अतः अब मुझे भी अपना नाम बदलना होगा। राजा कृष्णदेव राय के प्रति सम्मान जताने के लिए मुझे अपने नाम में उनके नाम का कृष्ण शब्द जोड़ लेना चाहिए। आज से मेरा नाम रामलिंग के स्थान पर रामकृष्ण हुआ।”

यह सुनकर तेनालीराम की मां बोलीं- “बेटा! मेरे लिए तो दोनों नाम समान हैं। मैं तो तुझे राम ही कहकर पुकारती हूं और आगे भी राम ही पुकारूंगी।”
कोड़वीड़ नामक स्थान पर तेनालीराम की भेंट वहां के राज्य प्रमुख के साथ हुई, जो विजयनगर के प्रधानमंत्री का संबंधी था। राज्य प्रमुख ने तेनालीराम को बताया कि महाराज बहुत विद्वान, गुणवान न्यायप्रिय और उदार-हृदय हैं, लेकिन जब उन्हें क्रोध आता है तो देखते-ही-देखते लोगों के सिर धड़ से अलग हो जाते हैं।

तेनालीराम ने आत्मविश्वास भरे स्वर में कहा “जब तक किसी कार्य में खतरा न लिया जाए, तब तक वह कार्य पूर्ण नहीं होता।” राज्य प्रमुख ने तेनालीराम को बताया कि प्रधानमंत्री भी विद्वानों का सम्मान करते हैं, परंतु जो लोग अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर पाते, ऐसे लोगों के लिए उनके यहां कोई स्थान नहीं है।

लगभग चार माह की कठिन यात्रा करने के बाद तेनालीराम अपने परिवार सहित विजयनगर जा पहुंचा।

विजयनगर की रौनक देखकर तेनालीराम दंग रह गया। साफ-सुथरी एवं चौड़ी सड़कें, अधिक जनसमूहों वाले इलाके, हाथी-घोड़े, बड़ी-बड़ी दुकानें, शानदार अट्टालिकाएं, ये सब उनके लिए बिल्कुल नया था ।

तेनालीराम ने एक परिवार से वहां कुछ दिन ठहरने की प्रार्थना की। वहां अपनी मां, पत्नी और बच्चे को छोड़कर वह राजगुरु के पास पहुंचा।

राजगुरु के यहां भीड़ का कोई ठिकाना नहीं था। राजमहल के बड़े-बड़े कर्मचारी, रसोइए और नौकर-चाकर सभी वहां उपस्थित थे। तेनालीराम ने एक नौकर द्वारा संदेश भेजा कि राजगुरु कि तेनाली नामक गांव से एक युवक राम आया है।
तेनालीराम को उस समय बड़ी हैरानी हुई, जब नौकर द्वारा संदेश लाया गया कि राजगुरु किसी राम नामक युवक को नहीं। जानते । तेनालीराम क्रोध में नौकरों को धक्का देते हुए राजगुरु के पास पहुंचा और बोला – “राजगुरु आपने मुझे नहीं पहचाना? मैं रामलिंग हूं, जिसने मंगलगिरी में आपकी सेवा की थी। ”

भला राजगुरु उसे कब पहचानना चाहता था। उसने नौकरों से क्रोध में आकर कहा—“यह आदमी कौन है ? मैं इसे नहीं जानता, इसे तुरंत यहां से बाहर निकाल दो । ”

तेनालीराम को अपमानित करके वहां से बाहर निकाल दिया गया। वहां उपस्थित सभी लोग जोर-जोर से ठहाके लगा। रहे थे। आज से पहले तेनालीराम का कभी अपमान नहीं हुआ था।

तेनालीराम ने दृढ़ संकल्प किया कि वह राजगुरु से इस अपमान से का प्रतिशोध अवश्य लेगा, परंतु सबसे पहले राजा के हृदय में जगह बनाना आवश्यक है।

अगले दिन तेनालीराम दरबार में पहुंचा। उसने देखा कि किसी विषय पर दरबार में वाद-विवाद चल रहा है । संसार क्या है ? जीवन क्या है? ऐसी बातों पर बहस हो रही थी।

एक पंडित ने अपना विचार रखते हुए कहा – “यह संसार एक भ्रम है। हम जो देखते सुनते हैं, महसूस करते हैं, चखते या सूंघते हैं, केवल वह हमारे विचार में है। असल में यह सब कुछ नहीं होता, लेकिन हम सोचते हैं कि होता है। ” “क्या सचमुच होता है?” तेनालीराम ने हैरत से पूछा ।
“यह बात हमारे शास्त्रों में भी कही गई है।” पंडित ने रौब दिखाते हुए कहा। सभी दरबारी शांत बैठे थे। शास्त्रों में कहा गया, झूठ कैसे हो

सकता है ? लेकिन तेनालीराम शास्त्रों से अधिक अपनी बुद्धि पर विश्वास करता था। उसने वहां उपस्थित सभी दरबारियों से कहा – “सभासदो! यदि ऐसा है तो हम क्यों न पंडितजी के इस विचार की सच्चाई परख लें। हमारे उदार हृदय महाराज की ओर से जो शानदार दावत दी जा रही है, उसे हम सभी उपस्थित दरबारी जी-भरकर खाएंगे। पंडितजी से निवेदन है कि वे बैठे रहें और सोचें कि हम भी खा रहे हैं। ”

तेनालीराम के इस कथन पर सभी दरबारियों ने जोर का ठहाका लगाया।

पंडितजी का सिर शर्म के कारण झुक गया। महाराज तेनालीराम की बुद्धिमत्ता पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें ढेर सारे उपहार दिए। उसी समय तेनालीराम को दरबार में एक सम्मानजनक स्थान दिया गया। सभी दरबारियों ने महाराज के इस निर्णय का स्वागत किया और दरबार में नए सदस्य का तालियों से स्वागत किया। ताली बजाने वालों में राजगुरु भी एक था।

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तेनाली राम की कहानियां – झोले में कटोरा

tenali raman stories – एक बार राजा कृष्णदेव राय अपने प्रमुख दरबारी और अंगरक्षक के साथ अमरकंटक की यात्रा पर गए।

नर्मदा नदी के किनारे उन्हें एक तपस्यारत संत के दर्शन वे संत पृथ्वी से लगभग डेढ़ फुट ऊंचे, शून्य में स्थित थे और तपस्या में मग्न थे। उनकी आंखें बंद थीं और मुंह से ‘ॐ’ का स्वर निकल रहा था। उनके ठीक नीचे एक मृगछाल आसन के रूप बिछी थी ।

यह दृश्य देखकर महाराज आश्चर्यचकित रह गए और अपने सेवकों सहित नतमस्तक हो वहीं बैठ गए। तपस्या पूर्ण होने पर संत अपने स्थान पर विराजमान हुए और धीरे-धीरे अपनी आंखें खोलीं। उन्होंने अपने सम्मुख बैठे राजा कृष्णदेव से कहा—“कहो

कृष्णदेव! सब आनंद-मंगल है?” “जी ऋषिवर!” महाराज कृष्णदेव राय ने हाथ जोड़ते हुए – “किंतु… ” कहा- “मैं जानता हूं।” संत बोले – “इन दिनों विजयनगर आर्थिक संकट से जूझ रहा है। शत्रुओं के आक्रमणों ने राज्य की संपत्ति को बहुत हानि पहुंचाई है, जिसके कारण राजकोष खाली पड़ा है। यही बात है न…?”

महाराज पुनः संत के सम्मुख नतमस्तक हो गए। संत ने महाराज को एक कटोरा दिया और उसमें नर्मदा नदी का जल भरकर लाने को कहा। थोड़ी देर बाद महाराज कटोरे में जल भर लाए। संत ने कटोरा लिया उसमें अपनी तर्जनी उंगली डुबोई और मंत्र पढ़ने के पश्चात महाराज से बोले – “सात दिनों तक इस मंत्रबद्ध जल के छींटे अपने कोषागार में दो । रिक्त कोषागार पुनः भर जाएगा और कभी खाली नहीं होगा, परंतु सावधान! यह जल कटोरे में ही रहे। ”

महाराज प्रसन्न होकर वापस अपनी छावनी में लौट गए और अगले दिन विजयनगर जाने की तैयारी करने लगे। विजयनगर लौटने की सभी तैयारियां कर ली गईं। सारा सामान बांध लिया गया, परंतु महाराज परेशानी में उलझे हुए थे।

दरबारियों ने उनकी परेशानी का कारण पूछा तो वे बोले– “यहां से विजयनगर पहुंचने का मार्ग काफी ऊबड़-खाबड़ है, ऐसे तो कटोरे का जल छलक-छलककर मार्ग में ही समाप्त हो जाएगा।”

महाराज के सामने यह बड़ी विकट समस्या आन खड़ी हुई थी। उस कटोरे को सुरक्षित विजयनगर पहुंचाना सभी को असम्भव लग रहा था।

महाराज ने एक-एक कर सभी दरबारियों को इस दायित्व का निर्वाह करने के लिए कहा, परंतु कोई भी इस कार्य को करने के लिए तैयार न हुआ ।

आखिर में तेनालीराम बचा। महाराज कृष्णदेव निराश होकर

बोले—“तेनालीराम तो आते समय पूरे मार्ग में सोता हुआ आया

” तेनालीराम तपाक से बोला- “नहीं महाराज! आते समय कोई कार्य न होने के कारण मैं सो गया था, परंतु पवित्र जल से भरा यह कटोरा अगर साथ रहेगा तो आंख नहीं लगेगी।”

है, इसलिए इससे पूछना व्यर्थ है।

महाराज बोले– “तेनालीराम पुनः सोच लो। यदि कटोरे का जल कम हुआ तो हम तुम्हें कठोर दंड देंगे।”

“आप निश्चिंत रहिए महाराज! मैं कटोरे के जल को अपने प्राणों से ज्यादा सुरक्षित रखूंगा। आप केवल विजयनगर के लिए प्रस्थान

का आदेश दें। ” थोड़ी ही देर बाद महाराज सहित सभी सदस्य विजयनगर के लिए रवाना हो गए।

सभी सदस्यों सहित राजा भी उस जल के कटोरे के विषय में सोचते रहे। मार्ग में जब राजा अपने अंगरक्षकों को तेनालीराम और जल से भरे कटोरे का हाल पूछने भेजते तो समाचार मिलता कि तेनालीराम निश्चिंत होकर सोया है और कटोरे का कहीं अता-पता नहीं है।

साथ ही तेनालीराम का अहित चाहने वालों को जब यह सूचना मिलती तो वे खुशी से फूले न समाते। मार्गदर्शक सेनापति जान-बूझकर रथों को ऊबड़-खाबड़ वाले रास्ते से ले जा रहा था। सभी रथ जोर-जोर से हिचकोले खा रहे थे।
विजयनगर पहुंचने पर सब जल से भरे कटोरे का हाल जानने को उत्सुक थे। उन्हें आशा थी कि जिस मार्ग से वे आए हैं, उस मार्ग में जल तो क्या कटोरा भी नहीं बचा होगा।

विजयनगर में महल के सम्मुख रथ रुके, महाराज ने सैनिकों को तेनालीराम को जल भरे कटोरे सहित उपस्थित होने का आदेश दिया।

सैनिक तेनालीराम के रथ की ओर चल पड़े। तेनालीराम अभी रथ में सोया हुआ था। तेनालीराम से ईर्ष्या करने वाले मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे। सैनिकों ने तेनालीराम को महाराज का आदेश सुनाया।

तेनालीराम तत्काल उठ खड़ा हुआ और रथ पर टंगा अपना थैला उठाए सीधा महाराज के पास पहुंचा। तेनालीराम के पास कटोरे के स्थान पर थैला देख महाराज बोले– “तेनालीराम! मैंने तुम्हें पवित्र जल से भरा कटोरा लाने को कहा था, तुम यह थैला टांगकर लाए हो। ”

तेनालीराम बड़े नम्र भाव से बोला – “कटोरा ही लाया हूं महाराज!”

कहकर तेनालीराम ने थैले में से पवित्र जल से भरा कटोरा

निकाला और महाराज को दे दिया ।

जल से लबालब भरा कटोरा देखकर महाराज हैरान रह गए। वे कभी तेनालीराम को देखते और कभी पवित्र जल के कटोरे को । महाराज ने तेनालीराम से कहा – “यह चमत्कार तुमने कैसे किया? यदि हमें बता दो तो हम तुम्हें मुंह मांगा पुरस्कार देंगे।”

तेनालीराम ने थैले में हाथ डालकर एक फटा गुब्बारा निकाला और महाराज के आगे कर दिया, फिर बोला— “महाराज! इस गुब्बारे में मैंने वह जल से भरा कटोरा रख दिया था। गुब्बारे की रबड़ कटोरे के चारों और कसी होने के कारण जल नहीं गिरा और इस तरह मैं इसे यहां तक सुरक्षित ला सका।”

यह सुनकर महाराज कृष्णदेव राय बहुत प्रसन्न हुए और फिर बोले—“तेनालीराम! विजयनगर को तुम पर सदा गर्व रहेगा। मांगो क्या मांगते हो?”

तेनालीराम ने मुस्कराकर कहा – “आपकी कृपादृष्टि महाराज!” महाराज ने तेनालीराम को हृदय से लगा लिया। तेनालीराम का स अहित चाहने वाले यह दृश्य देखकर एक बार फिर मन मसोसकर रह गए।

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तेनाली राम की कहानी – मुनादी

tenali raman stories – राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा हुआ था। सभी दरबारी प्रजा की भलाई के लिए अपना-अपना मत रख रहे थे। राजपुरोहित ने कहा—“महाराज! हमें अपनी प्रजा से सीधे सम्पर्क करना चाहिए।

पुरोहित के कथन पर सभी दरबारी हैरान रह गए। फिर असमंजसता से उनकी ओर देखने लगे कि पुरोहितजी आखिर कहना क्या चाहते हैं ।

“पुरोहितजी हम आपकी बात का अर्थ नहीं समझे।” महाराज बोले ।पुरोहितजी ने अपनी बात का अर्थ बताते हुए कहा – “महाराज रोजाना दरबार में प्रजा के कल्याण हेतु चर्चा होती है और वही बात
प्रजा तक नहीं पहुंचती, मेरे अनुसार हमें दरबार में लिए गए प्रमुख निर्णयों को प्रत्येक सप्ताह प्रजा के सामने रखना चाहिए जिससे प्रजा का हमसे सीधा सम्पर्क बना रहेगा। इससे प्रजा भी अपने अच्छे सुझाव दे सकती है। ”

यह सुनकर दरबार में उपस्थित दरबारी आपस में खुसर- फुसर करने लगे। कुछ ही क्षणों के बाद मुख्यमंत्री बोले- “महाराज! पुरोहितजी का सुझाव अति उत्तम है, इससे प्रजा और हमारे मध्य सम्पर्क बना रहेगा और एक-दूसरे के प्रति विश्वास बढ़ेगा। मेरे विचार से यह महान कार्य तेनालीराम को सौंपा जाना चाहिए। वे इस कार्य को पूरी जिम्मेदारी के साथ करेंगे।”

“बहुत अच्छा!” राजा ने इस कार्य की जिम्मेदारी तेनालीराम को सौंप दी। फैसला किया गया कि दरबार की गुप्त बातों को छोड़कर जन-कल्याण की सभी बातें तेनालीराम लिखित रूप में दारोगा को देंगे और दारोगा मुनादी द्वारा वे बातें जनता तक पहुंचाएगा। तेनालीराम को यह समझते देर न लगी कि मुख्यमंत्री, सेनापति और राजपुरोहित ने साजिश करके उन्हें इस झमेले में फंसाया है।

तेनालीराम ने उनके इस कृत्य का मुंहतोड़ जवाब देने का फैसला किया। अपनी योजना के अंतर्गत तेनालीराम ने सप्ताह के अंत में एक पर्चा दारोगा को सौंप दिया। दारोगा साहब ने वह पर्चा मुनादी करने वाले को पकड़ा दिया और कहा – “पूरे राज्य में यह संदेश पहुंचा दो। ”

मुनादी वाला प्रत्येक चौराहे पर संदेश प्रसारित करने लगा “सुनो सुनो सुनो! नगर के सभी नागरिको सुनो! महाराज चाहते हैं कि दरबार में जो भी जन-कल्याण के लिए प्रमुख फैसले लिए जाएं, उन्हें प्रजाजन भी जानें। प्रजा को इन सूचनाओं से अवगत कराने का कार्य तेनालीराम को सौंपा गया है, उन्हीं की आज्ञा पाकर हम यह सूचना पहुंचा रहे हैं। ध्यान से सुनो।

महाराज चाहते हैं कि प्रजा के साथ अन्याय न हो और जो अपराधी हो उसे कड़ी सजा दी जाए। इसी विषय पर दरबार में गम्भीरता से विचार-विमर्श किया गया। महाराज चाहते हैं कि पुरानी न्याय व्यवस्था समाप्त कर नई न्याय व्यवस्था तैयार की जाए, जिसमें कुछ साफ-सुथरी बातें पिछली न्याय व्यवस्था की भी रखी जाएं। इस विषय में उन्होंने पुरोहितजी से विचार-विमर्श किया, परंतु लज्जा का विषय यह रहा कि पुरोहितजी इस बारे में कुछ न बता सके और हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे।

इस धृष्ठता पर महाराज ने उन्हें खरी-खोटी सुनाई। इस बात के अगले दिन राज्य की सीमाओं की सुरक्षा को लेकर दरबार में बातचीत हुई, किंतु सेनापति के देर में उपस्थित होने के कारण चर्चा बडी देर से शुरू हुई, जिससे दरबार का कीमती समय नष्ट हुआ, इस कारण क्रोध में आकर महाराज ने सेनापति को भी काफी खरी-खोटी सुनाई।”

उसके बाद मुनादी वाला ढोल बजाता हुआ अगले चौराहे पर जा पहुंचा। प्रजाजन राजपुरोहित और सेनापति के इन कृत्यों को सुनकर ठहाका लगाकर हंस पड़े और हर चौराहे पर उनकी चर्चाएं होने लगीं। अब तो हर सप्ताह मुनादी वाला मुख्यमंत्री, सेनापति आदि की सरेआम चौराहे पर खड़ा होकर बेइज्जती करता।

तेनालीराम जानबूझकर खबरों में स्वयं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते, मुनादी सुन-सुनकर ऐसा प्रतीत होता कि जैसे सारे कार्य का बोझ तेनालीराम के ऊपर है। मुख्यमंत्री अपने गुप्तचरों द्वारा सूचना मिलते ही झुंझला उठा, उसने तुरंत सभा बुलवाई और बोला- “पुरोहितजी ये क्या हो रहा है? तेनालीराम ने तो प्रजाजनों के सम्मुख हमारी इज्जत का पलीदा बना दिया है। प्रजा हमें मूर्ख और अज्ञानी समझती है। वह सोचती है कि हम र समय महाराज की फटकार सुनते रहते हैं और राज्य का सार कार्य-भार तेनालीराम के कंधों पर है। ”

“आप बिल्कुल ठीक कहते हैं, मगर मैं भी क्या कर सकता हूं। मैंने तो सोचा था कि ढोल तेनालीराम के गले में लटकेगा और वही नगर-नगर मुनादी करता फिरेगा तथा इस तरह प्रजा के सम्मुख उसकी बेइज्जती होगी, पर कुल्हाड़ी तो हमारे ही पैर पर पड़ गई।

अब मैं महाराज से क्या कहकर यह कार्यवाही रुकवाऊं।” पुरोहित ने चिंतित स्वर में कहा। सेनापति बोला—“आपके हां कहने पर हमने भी सहमति जताई थी, इसलिए हम भी कुछ करने में असमर्थ हैं।” उनकी वार्ता सुनकर प्रधानमंत्री बोले- “आप लोग बेफिक्र रहो, अब मैं इस कार्यवाही को स्थगित करवाने की मांग करूंगा।”

दो दिन पश्चात फिर दरबार लगा हुआ था। कोई कार्यवाही शुरू होने से पूर्व ही प्रधानमंत्री बोले– “अन्नदाता! आपसे एक निवेदन करना चाहता हूं।” “निःसंकोच कहिए प्रधानमंत्रीजी! क्या कहना चाहते हैं?” ने महाराज ने पूछा।

“अन्नदाता! हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि राज-काज की सभी बातें गोपनीय रखनी चाहिए। वे बातें आम जनता के मध्य नहीं आनी चाहिए।” प्रधानमंत्री की बात सुनते ही तेनालीराम तपाक से बोले – “वाह! प्रधानमंत्रीजी! नीति और शास्त्रों की बात का आपको तब ज्ञान हुआ, जब आपके नाम का ढोल भी बज गया।”

इतना सुनते ही महाराज सहित सभी दरबारी ठहाका लगा उठे। असल में सभी दरबारियों को और महाराज को इन सभी की साजिश का पहले से पता था, लेकिन उन्हें तेनालीराम की बुद्धि प्रखरता पर पूर्ण विश्वास था, उन्हें ज्ञात था कि शीघ्र ही तेनालीराम अपना अहित चाहने वालों का सिर शर्म से झुका देंगे और तेनालीराम महाराज की इस सोच पर खरे उतरे। उनका अहित चाहने वालों का सिर एक बार फिर शर्म से झुक गया।

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तेनाली राम की कहानी – मुर्गियों में अकेला मुर्गा

tenali raman stories – राजा कृष्णदेव के राज्य में वित्तीय नियमों के अनुसार व्यक्ति की व्यक्तिगत आय पर भी राज्य ‘कर’ लगता था। जो जैसा ‘कर’ अदा करता था, उसे राज्य की ओर से वैसी ही सुविधाएं प्रदान की जाती थीं। तेनालीराम की आय की कोई सीमा न थी, क्योंकि वे समय-समय पर अपनी सूझ-बूझ द्वारा बहुत-सा धन इनामस्वरूप ले जाया करते थे। इस कारण ‘करदाताओं’ में उनका नाम सबसे ऊपर रहता था। यहां तक कि मंत्री, सेनापति आदि इन सबके नाम उनसे नीचे ही रहते थे। इस कारण तेनालीराम को उन सबसे ज्यादा सुविधाएं मिलती थीं। इसी कारण सब लोग उनसे जलते थे।

दरबार सप्ताह में छः दिन लगता था। सातवें दिन महाराज महल के बगीचे में बैठकर दरबारियों की समस्याओं का समाधान करते थे। हमेशा की तरह वे उस दिन भी दरबारियों की समस्या का समाधान कर रहे थे, परंतु आज तेनालीराम सभा में अनुपस्थित थे। एक मंत्री ने उचित समय देखकर महाराज को आयकर दाताओं की सूची देते हुए कहा—“अन्नदाता! इस प्रस्तुत सूची के अनुसार तेनालीराम राज्य के सबसे अधिक आयकरदाता हैं, लेकिन उनका वेतन हमसे अधिक नहीं है। यह सोचने का विषय है महाराज कि उनके पास इतना धन कहां से आता है?”

तभी एक अन्य मंत्री मौका देखकर बोला- “अन्नदाता! यह बात तो वास्तव में सोचनीय है। नियमों के अनुसार हर दरबारी मात्र दरबार से ही वेतन प्राप्त करता है। वह और किसी प्रकार से आय प्राप्त नहीं कर सकता। फिर तेनालीराम की ऊपरी आय का स्रोत क्या है ?”
राजपुरोहित भी इस अवसर को गंवाना नहीं चाहते थे। वे भी बोले– “महाराज! दरबार के नियमों का उल्लंघन करने और आय से अधिक धन कमाने के अपराध में अपराधी को दंड मिलना चाहिए।”

बाकी उपस्थित सभी सदस्यों ने तेनालीराम के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए महाराज पर जोर डाला। महाराज का चेहरा गम्भीर हो गया। उन्हें सेनापति, मंत्री आदि की शिकायत ठीक लगी।

साथ ही साथ महाराज को यह भी ज्ञात था कि तेनालीराम की ऊपरी आय का स्रोत पुरस्कार का वह धन है, जो वे समय-समय पर अपनी बुद्धि के बल पर जीतते हैं। साथ ही महाराज इस दुविधा में फंस जाते हैं कि उन कार्यों के लिए तो उन्हें दरबार से निश्चित वेतन मिलता है।

महाराज इस दुविधा में फंस गए। वे अपनी तरफ से तेनालीराम के पक्ष में सफाई इसलिए नहीं देना चाहते थे कि दरबारी कहीं उन्हें पक्षपाती न समझ लें । इसलिए वे चुप रहे और थोड़ी देर की खामोशी के बाद बोले – “जब तक तेनालीराम नहीं आ जाता, तब तक उसके विरुद्ध कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता, क्योंकि आरोपी को भी अपनी सफाई पेश करने का पूर्ण अधिकार hai.

तत्पश्चात एक सेवक द्वारा तेनालीराम को बुलाया गया। तेनालीराम कंधे पर एक थैला लटकाए महाराज के सामने उपस्थित हुए।

“महाराज की जय हो!” तेनालीराम ने हर्षित मन से कहा। “तुम अभी तक कहां थे तेनालीराम !” महाराज बोले “क्या बताऊं महाराज!” तेनालीराम उदास होते हुए बोला– “मैं एक उलझन में फंस गया हूं।” कहते हुए उसने थैले के अंदर से एक मोटा-ताजा मुर्गा निकाला।
“अरे! तुम मुर्गे को थैले में डाले क्यों घूम रहे हो?” “अन्नदाता! आपकी कृपा से मेरे पास सोलह मुर्गियां हैं औरउनमें ये इकलौता मुर्गा है। कुल मिलाकर ये सत्रह प्राणी हैं। मैं इनके लिए प्रतिदिन सत्रह दाने हिसाब से डालता हूं, लेकिन यह मुर्गा दूसरी मुर्गियों के हिस्से के दाने भी खा जाता है। इस कारण मेरी मुर्गियां भूखी रह जाती हैं। अन्नदाता! अब आप ही मेरी मुर्गियों का न्याय करें और इस दुष्ट को उचित दंड दें।”

यह सुनकर महाराज हंसते हुए बोले– “तेनालीराम इसमें इस मुर्गे का कोई दोष नहीं है। यह मुर्गा मुर्गियों की तुलना में अधिक चुस्त-दुरुस्त है। इसी कारण वह अपनी आवश्यकता से अधिक दाने खा जाता है। रही बात दंड देने की तो दंड इसे नहीं, तुम्हें मिलना चाहिए, क्योंकि तुम इसे इसकी आवश्यकता से कम खाना देते हो।”

सभी दरबारियों ने महाराज की बात पर अपनी सहमति मुहर लगाई।तेनालीराम ने मुर्गे को वापस थैले में डाल दिया। महाराज कृष्णदेव राय के सम्मुख हाथ जोड़ते हुए तेनालीराम बोला— “अन्नदाता! इस सेवक को कैसे याद किया?” महाराज ने तेनालीराम को विस्तारपूर्वक सारी बात बताई और उससे उसकी अतिरिक्त आय के स्रोत के बारे में पूछा। तेनालीराम ने ध्यानपूर्वक सारी बात सुनी और फिर बोला— “अन्नदाता! मैं अपने मुर्गे की ही भांति चुस्त-दुरुस्त हूँ और आपकी मुर्गियों में अकेला मुर्गा हूं।”

तेनालीराम की बात सुनते ही महाराज सहित सभी उपस्थित दरबारी ठहाका लगाकर हंस पड़े। मुर्गे की मिसाल देकर तेनालीराम ने सारा क्लेश समाप्त कर दिया ।
सभा की समाप्ति के बाद, जब सब चले गए तो महाराज ने तेनालीराम से पूछा – “सेनापति, पुरोहित और मंत्री द्वारा तुम्हारे खिलाफ साजिश का तुम्हें कैसे पता चला ? जो तुम मुर्गे सहित चले आए?”

“महाराज ने अपना खास सेवक जो मुझे बुलाने भेजा था। ” तेनालीराम की जवाबदेही पर महाराज मुस्कराकर रह गए।


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तेनाली राम की कहानी – सच्चा कलाकार

tenali raman stories – एक बार राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा हुआ था। वर्षा के मौसम में बाहर रिमझिम फुहारें पड़ रही थीं।

वर्षा का कर्णप्रिय संगीत, महाराज को बड़ा ही लुभावना लग रहा था। तभी राजा कृष्णदेव राय ने अपनी इच्छा प्रकट करते हुए कहा -“मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस वर्ष भी वर्षा उत्सव धूमधाम से मनाया जाए।” यह बात सुनकर सभी दरबारियों के चेहरे खिल उठे।

मंत्री ने अपना सुझाव देते हुए कहा – “इस अवसर पर राज्य के सभी कलाकार अपनी-अपनी कला का प्रदर्शन करें और सर्वश्रेष्ठ कलाकार को महाराज की ओर से सम्मान और पुरस्कार दिया जाए।” इस अनोखे वर्षा-उत्सव की योजना फौरन तैयार हो गई।

“लेकिन सम्मान किस कलाकार का हो ?” महाराज ने पूछा। तब एक मंत्री ने सुझाव देते हुए कहा – “महाराज! हमारे राजदरबार में बहुत-से कलाकार हैं, उन्हीं में से किसी एक को पुरस्कार दिया जा सकता है। ” तेनालीराम को मंत्री का सुझाव कुछ अटपटा-सा लगा और फिर वह

बोला- “महाराज! इस बार वास्तव में किसी सच्चे कलाकार का सम्मान किया जाए।” “सच्चा कलाकार, कहना क्या चाहते हो कृष्णदेव राय ने आंखें तरेरकर पूछा । तुम तेनालीराम ? ”

“महाराज! सच्चा शिल्पी कभी किसी को खुश करने के लिए मूर्तियां नहीं बनाता। मैंने एक ऐसा शिल्पी देखा है, जो मूर्तियां बनाते-बनाते इतना मग्न हो गया कि उसे अपने आस-पास की कुछ खबर तक नहीं है।”

“तब तो हम अवश्य उस शिल्पी की कला देखना चाहेंगे।” राज ने कहा। अगले ही दिन राजा कृष्णदेव राय अपने घोड़े पर बैठकर तेनालीराम, मंत्री और प्रमुख सभासदों को साथ लेकर उस शिल्पी से मिलने चल पड़े।

चलते-चलते एक जंगल में वे ‘काले पहाड़’ के निकट पहुंचे। पहाड़ की गुफा से ठक-ठक-ठक की आवाज निरन्तर आ रही थी। राजा कृष्णदेव राय गुफा के अन्दर गए। उन्होंने देखा—उनके चारों ओर काले पत्थर की मूर्तियां-ही-मूर्तियां थीं।

उन्हीं मूर्तियों के बीच वह मूर्तिकार ऐसे बैठा था, जैसे वह भी कोई मूर्ति हो। राजा कृष्णदेव राय उसके पास गए और पूछा- “किसकी मूर्ति बना रहे हैं आप?” “वर्षा रानी की। नीचे-लहलाती फसलें, ऊपर आकाश • उमड़ते-घुमड़ते बादल और बीच में नृत्य करती वर्षा रानी…“लेकिन आप इन मूर्तियों को बाजार में क्यों नहीं बेचते? बहुत धन मिलेगा।”

“यह काम मेरा नहीं, सौदागरों का है। मैं मूर्तियां बनाता हूं, इसी में मुझे आनन्द मिलता है। कुछ व्यापारी हैं, जो ये मूर्तियां ले जाते हैं। मुझे खाने-पीने के लिए उनसे कुछ पैसा मिल जाता है, बस।”

यह सुनकर राजा कृष्णदेव राय हैरान रह गए। उसी दिन राजा कृष्णदेव राय ने सारे राज्य में घोषणा करवा दी — ‘इस बार वर्षा उत्सव पर वनवासी मूर्तिकार की कला का सम्मान किया जाएगा। मूर्तिकार की बनाई गई वर्षा रानी की मूर्ति

राजमहल के उद्यान के बीचोबीच प्रतिष्ठित की जाएगी।’ तेनालीराम की बुद्धिमत्ता की सभी मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रहे थे।

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