Surdas

Surdas (सूरदास) कृष्णकाव्य की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं । हिंदी साहित्य में उनका एक उच्च स्थान है। उनका जन्म कब और कहाँ हुआ तथा उनका साहित्यिक जीवन कैसा रहा, इन सभी विषयों पर चलिए एक नजर डालते हैं।

सूरदास का संछिप्त परिचय 
नाम सूरदास
पिता रामदास सारस्वत
माता जमुनादास
जन्म तिथि 1478 ( मतभेद हैं )
जन्म स्थान रेणुका क्षेत्र ( मतभेद हैं )
धर्म हिन्दू
साहित्यिक कालभक्ति काल ( कृष्णा भक्ति )
भाषा ब्रज
गुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य
प्रमुख रचना सूरसागर, सुर सारावली, साहित्य लहरी
मृत्यु 1583 ( परसौली में )

सूरदास का जीवन परिचय 

surdas ka jivan parichay  | Surdas

कुछ साहित्य केअनुसार उनका जन्मस्थान ” सीही ” का गांव बतलाया जाता है जो दिल्ली से कई मील दूर बल्लभगढ़ के पास है। कुछ का कहना है कि उनका निवास स्थान रेणुका क्षेत्र का रूणुकता गाँव भी है। उनकी भाषा और जनमत के आधार पर आगरा में मथुरा के पास “सीही” के गाँव को ही उनका प्रामाणिक जन्मस्थान माना जाना चाहिए।

सूरदास  ने अपनी जन्मतिथि के बारे में कहीं नहीं लिखा। साहित्य लहरी में दिए गए एक श्लोक के आधार पर उनका जन्म 1540 माना जाता है। कुछ लोग उन्हें सारस्वत जाति का ब्राह्मण कहते हैं। एक अन्य मत के अनुसार, उन्हें ब्रह्मभट्ट से भी जोड़ा जाता है और उनके पूर्वज चांदवरदाई हैं।

प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि मिल्टन की तरह, सूरदास अंधे पैदा हुए थे या बाद में अंधे हो गए, इस पर बहुत विवाद है। लेकिन सूरदास ने छंदों में बार-बार खुद को अंधा कहा- ” सूर कहा कहों द्विविध अंधुरो|| ”

शायद, अपने माता-पिता की गरीबी और अपने जन्म के कारण, वह अपने परिवार का स्नेह नहीं जीत सका और एक बच्चे के रूप में अपने घर से अलग हो गया वह अठारह साल तक अपने गांव के पास एक झोपड़ी में रहा यहां उन्होंने संगीत और ज्योतिष का अच्छा अभ्यास किया| सूरदास की इतनी ख्याति हो गई की सामान्य जान उनके पास आकर उनका भजन सुनते और मन जाता है कि वे लोगो का भविस्य भी बताया करते थे ।

वे भक्ति करना चाहते थे। पर उन्हें लोगो कि भीड़ से इतना समय नहीं मिल पा रहा था । इसलिए एकांत प्राप्त करने के लिए वे ” गऊघाट” नमक स्थान पर चले गए । गऊघाट, मथुरा और आगरा के बीच यमुना नदी के किनारे बसा एक मनोरम स्थान था। यही वह स्थान है जहाँ उनकी रचनाओं का उदय हुआ। संगीत, काव्य और शास्त्र के अध्ययन का अवसर उन्हें इसी स्थान पर मिला।

“विनय के पद” की रचना भी वे गऊघाट में ही की थी । उनके इन्ही पदों को सुनने के लिए लोग उनके पास आया करते थे । ये पद सबको आनंदविभोर कर देती थी।


surdas ka jivan parichay  | Surdas

सुर के अंधत्व 

सुर के अंधत्व पर आज भी विवाद बना हुआ है। कुछ साहित्यकार उनको जन्मांध तो कुछ घटना जनित नेत्रहीन मानते हैं। एक किम्बदन्ती के अनुसार वे एक नारी के प्रेमवश, अपनी ऑंखें फोड़ ली थी। पर इसका कोई तथ्य  प्रमाण नहीं मिल पाया है। पर अपने काव्यांशों में कई जगह उन्होंने अपने अंधत्व का उल्लेख किआ है ।

जैसे –

  1. सूर की बिरियाँ निठुर होइ बैठे , जन्म अंध करयो।
  2. सूरदास सो कहाँ निहारो, नैनं हूँ को हानि ।।
  3. सूरदास अंध अपराधी सो कहे बिसरायो ।।
  4. सूरदास के आँखि है , ताहू में कुछ कानो ।।

सूरदास के अंधेपन के विषय पर वार्ता साहित्य में इसका उल्लेख मिलता है –  ” सो सूरदास जी के जनमत ही सो नेत्र नाही है और नैनं को आकर गेढीला और कछु नाही । ऊपर भों मात्र है , सो या भांति सूरदास के स्वरुप है।

पर कुछ कविताओं में रंगो का उल्लेख के कारण अष्ठछाप परिचय में प्रभु मित्तल ने उनके जन्मांध होने पर सन्धेय जताया है। उनका अनुमान है कि वे शायद वृद्धावस्था के कारण अंधे हो गए होंगे । कही – कही ये भी कहा जाता है कि वे नित्य प्रिय जी के दर्शन करने गोकुल जाते थे और श्रृंगार रास से ओतप्रोत पद की रचना करना, उनके अंधेपन पर प्रश्न चिन्ह लगता है। 


surdas ka jivan parichay  | Surdas

ज्ञान व् वैराग्य 

सूरदास को बचपन से ही एक अलगाव का बोध हो गया था। सुंदरस के अंधे होने के कारण माता – पिता भी उनसे उतना प्रेम नहीं करते थे। उन्हें भी प्रेम और आत्मीयता की तलाश थी। यही वह कारण है की उन्होंने अपना घर त्याग दिया। कहा जाता है कि वे अपने गांव से बाहर एक तालाब के किनारे एक पीपल के वृक्ष के नीचे रहने लगे थे। कुछ लोग कहते हैं कि वे एक साधु की भांति जीवन यापन करने लगे थे। गांव के लोग उनके पास समस्या लेकर आया करते थे। वे उन समस्या का निवारण भी बड़ी ही आसानी से कर दिया करते थे। इसलिए वे लोगो के बीच उनकी ख्याति बढ़ती गई।

समय उपरांत वे अपने गांव को छोड़ कर मथुरा और आगरा के मध्य रेणुका क्षेत्र के गऊघाट में रहने लगे। ये स्थान आज भी सूरदास के कारण बहुत ही विख्यात है। इसकी स्थान को सूरदास ने अपने वैराग्य के लिए चुना था। वर्ष 1567 में जब महाप्रभु बल्लाभाचार्य गऊघाट में आये थे, तब सूरदास ने उनके दर्शन किये। सूरदास का जीवन परिवर्तन महाप्रभु के के दर्शन मात्र से हो गए थे । महाप्रभु ने ही उन्हें ईश्वर भक्ति की राह दिखलाई। आचार्य ने सूरदास को भगवद नाम का श्रवण कराया।

सूरदास ने अपना सारा जीवन अपने गुरु के चरणों में अर्पित कर दिया। आचार्य सूरदास के पदों से बड़े ही प्रभावित थे। सूरदास भी श्रीनाथ जी के कीर्तन मंडली में गया करते थे। बाद में वे इसी कीर्तन मंडली के अध्यक्ष बन गए। सूरदास के शिष्य भी इसी मंडली में शामिल थे। सभी उनकी वाणी से बड़े ही प्रभावित थे और यही कारण था कि उनके शिष्यों ने उनके पदों का संग्रह करना आरम्भ कर दिया। 


surdas ka jivan parichay  | Surdas

सूरदास का साहित्य परिचय

सुदास रचनाओं पर कई विद्वानों में मतभेद है। विद्वानों के अनुसार सूरदास की दो दर्जन से अधिक रचनाएँ हो सकती है। ये रचनाएँ अनूठे और ज्ञान से पिरोयी हुई हैं। उनकी रचनाओं में मात्र तीन रचनाओं को ही मुख्य रचनाओं की श्रेणियों में रखा जाता है।

  • सूरसागर
  • सुर सारावली
  • साहित्य लहरी

आइये इन रचनाओं की विषय में जानने का प्रयास करते हैं।

सूरसागर

अपने गुरु की आज्ञा से सूरदास ने इसकी रचना की थी। सूरसागर को एक महान रचना माना जाता है। इसमें भगवद लीला का गुणगान किया गया था। भागवत के समान ही इनमें 12 स्कन्ध हैं। इन स्कन्धों का विस्तार सूरदास ने अपनी काव्य-दृष्टि के अनुसार ही किया है। ‘सूरसागर’ के प्रथम स्कन्ध में विनय के पद माया, अविद्या, तृष्णा तथा भक्ति-महिमा से भरे पड़े हैं। भागवत के प्रथम स्कन्ध की सामग्री से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।

सूर की प्रारम्भिक रचनाएँ ही इसमें है। द्वितीय से अष्टम स्कन्ध का विस्तार अत्यधिक कम आकार में हुआ है। नवम स्कन्ध भागवत की कथावस्तु पर आधारित है, फिर भी राजा नहुष, इन्द्र के शाप की कथा और कच तथा देवयानी की कथा का संक्षिप्त रूप में समावेश है, जो भागवत में नहीं मिलता। ‘सूरसागर’ के दशम स्कन्ध का पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध सूर की समस्त कीर्ति का आधार है पूर्वार्द्ध में कृष्ण के जन्म, बाल-लीला, राम-लीला और भ्रमर-गीत की विस्तृत रचना 4160 पदों में की गयी है।

वात्सल्य और शृंगार का सर्वांगपूर्ण अंकन इसी स्कन्ध में हुआ है। दशम स्कन्ध के उत्तरार्द्ध में जरासंध युद्ध, द्वारका निर्माण, रुक्मिणी हरण, शिशुपाल वध, सुभद्रा अर्जुन विवाह आदि भागवत कथा के अंशों का 149 पदों में अकंन किया गया है। एकादश और द्वादश स्कन्ध नाममात्र हैं, जिनमें क्रमशः 4-5 पद हैं। इस प्रकार भागवत कथा का आधार लेकर भी सूरदास ने कृष्ण की केवल बाल, किशोर और युवावस्था की मधुर लीलाओं का ही अकंन किया है। इन पदों में भागवत का अनुकरण नहीं, अपितु सूर की प्रतिभा की मौलिकता के दर्शन होते हैं।

सुर सारावली

सूरदास का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘सूर-सारावली’ है। कतिपय विद्वान् इसे सूरदास की रचना नहीं मानते। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा ने अपने प्रबन्ध ‘सूरदास’ में ‘सूरसागर’ और ‘सूर-सारावली’ की कथावस्तु में 27 अन्तर दिखाते हुए इस रचना को किसी अन्य कवि की घोषित किया है। आत्म-विज्ञप्ति, भाषा-शैली में भिन्नता, आदि के आधार पर भी इसे सूरदास की रचना नहीं माना जाता रहा है, लेकिन डॉ. मुंशीराम शर्मा ने यह सूरदास की ही रचना सिद्ध की है।

यह रचना होली के वृहत् गान के रूप में लिखी गयी है। इसमें हरि के जिन अवतारों का वर्णन है, उनमें भी होली खेलने की महत्ता प्रदर्शित की गयी है। ‘सूर-सारावली’ में ब्रज-वर्णन, कृष्ण जन्म, पूतना वध, संकट-भंजन, तृणावर्त, चन्द्र-दर्शन, घुटनों के बल चलना, माटी भक्षण, भ्रमर-गीत आदि हरि लीला सम्बन्धी अनेक प्रसंग वर्णित हैं।

‘सूर-सारावली’ में कवि का ध्यान सिद्धान्त पक्ष की स्थापना की ओर विशेष रूप से लगा रहा है। ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार वल्लभाचार्य ने सूरदास को पुरुषोत्तम सहस्रनाम और श्रीमद्भागवत की दशा विध लीलाओं का उपदेश दिया था। डॉ. मुंशीराम शर्मा के मत में ‘सूर-सारावली’ का निर्माण इन्हीं लीलाओं का बोध कराने के लिए हुआ है।

साहित्य लहरी

सूर की तीसरी रचना ‘साहित्य लहरी’ काव्य प्रन्थ-सी प्रतीत न होकर लक्षण मन्थ-सी प्रतीत होती है। डॉ. मुंशीराम शर्मा के अनुसार-“सूर ने साहित्य लहरी नन्दनन्दन अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण के भक्तों के लिए निर्मित की। सांप्रदायिक वार्ताओं के अनुसार नन्ददास को पुष्टिमार्ग में प्रवृत्त करने तथा शिक्षा देने के लिए सूरदास ने इस ग्रन्थ का निर्माण किया था। अष्टछाप सम्प्रदाय में नन्ददास भी कहे जाते थे।”

‘साहित्य-लहरी’ में 118 दृष्टिकूट पदों का संग्रह है, जिसमें कृष्ण की बाल लीला, नायिका-भेद के में राधिका के गान का वर्णन, वियोगिनी प्रोषित-पतिका और संयोगिनी विलासवती स्त्री के वर्णन, स्वकीया तथा परकीया आदि नायिका का वर्णन किया गया है। इसी के साथ दृष्टान्त, निदर्शना, व्यतिरेक, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, प्रस्तुत आदि अलंकारों का भी क्लिष्ट शब्दों का जानबूझकर इस्तेमाल किया गया है।

पद-संख्या 74-75 में महाभारत की कथा के भी कुछ प्रसंग आ गये हैं। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा इस रचना को शैली-भेद के आधार पर सूरदास की रचना न मानकर परिचय-पद के आधार पर किसी सूरजचन्द भाट की रचना मानते हैं। डॉ. मुन्शीराम शर्मा इसे सूरदास की ही रचना मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार, “शैली सम्बन्धी विभिन्नता के आधार पर ‘साहित्य-लहरी को ‘सूर-सागर’ के रचयिता से भिन्न किसी अन्य कवि की कृति नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही रचनाकार की विभिन्न रचनाओं में शैली भिन्नता पायी जा सकती है।


surdas ka jivan parichay  | Surdas

सूरदास की भाषा शैली 

सूरदास की शिक्षा-दीक्षा के विषय में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। धार्मिक शिक्षा-दीक्षा का उल्लेख तो मिल भी जाता है, परन्तु विद्यालयीन शिक्षा को कोई प्रमाण नहीं मिलता। सूर के पौराणिक, सांस्कृतिक एवं पूर्ववर्ती आन्दोलनों को देखते हुए उन्हें अपढ़ कहना भी कठिन जान पड़ता है। सूर के ज्ञान का फलक तत्कालीन मध्ययुगीन ऐतिहासिक चेतना के आधार पर अत्यन्त व्यापक रूप से निर्मित था।

सूरदास की सर्वथा ब्रज भाषा का ही प्रयोग किया था। सुर के समस्त काव्य गीति काव्य है। इसमें राग रागनियों का सुर ने विशेष सहारा लिया है।


सूरदास के पद

surdas ke pad | surdas ke pad class 10 | surdas ka jivan parichay  | Surdas

आइये सूरदास के पदों के कुछ अंशों को पढ़ें। ये अंश कई विद्यालयों और कालेजों के पाठ्यक्रमों में शामिल किये गए हैं।

 

( क ) विनय के पद – sudas

(1) अब कै राखि लेहु भगवान् ।

हौं अनाथ बैठ्यौ द्रुम-डरिया, पारधि साधे बान ॥

ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान ।

दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारै प्रान ॥

सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान ।

‘सूरदास’ सर लग्यौ सचानहिं, जय-जय कृपानिधान ॥

प्रसंग– विनय वर्ग का यह पद ‘विनती’ उपशीर्षक के अंतर्गत है। इसमें सूर ने पक्षी, बहेलिया और बाज के घटना प्रसंग की उद्भावना करके अपने आराध्य कृष्ण की कृपालुता का गौरवगान किया है

भावार्थ -इस पद में सूर ने अपने माध्यम से जीवात्मा को पक्षी के रूप में प्रस्तुत किया है, जो संसाररूपी वृक्ष पर असहाय बैठा हुआ है। आसक्ति और मृत्यु भय क्रमशः बहेलिया और बाज पक्षी के रूप में उसे अपना शिकार बनाना चाहते हैं निर्वेद अथवा अनासक्ति ही सर्प है जो मोह के व्याध को डॅस लेता है और जिसके फलस्वरूप उसका तीर लक्ष्य भ्रष्ट होकर मरणांतक रूपी सचान को नष्ट कर देता है। सूर का मंतव्य यह है कि प्रभु के स्मरण से मोह की निवृत्ति हो जाती है और माया व मृत्यु के संत्रास से मुक्ति मिल जाती है।


(2)प्रभु हौं सब पतितनि कौ टीकौ ।

और पतित सब दिवस चारिके, हौं तौं जनमत ही कौं ॥

बधिक, अजामिल गनिका तारी और पूतना ही कौं।

मोहिं छाँड़ि तुम और उधारे मिटै सूल क्यों जी कौं ॥

कोउ न समरथ अब करिबे कौं, खेंचि कहत हौं लीकौं ।

मरियत लाज ‘सूर’ पतितनि मैं, मोहूँ तैं कों नीकौं ॥

भावार्थ -हे प्रभु मैं पतितों में श्रेष्ठ हूँ। और सभी पतित तो चार दिन के हैं, लेकिन मैं तो जन्म से ही पतित हूँ। व्याध, अजामिल, गणिका तथा पूतना का आपने उद्धार किया। मुझे छोड़ आपने सबका उद्धार किया। मेरे मन की कसक क्योंकर मिटे? मेरे जैसा पाप करने वाला कोई नहीं है यह मैं दृढ़ता से कह सकता हूँ। सूर पतितों के बीच यह सोचकर शर्म से मरा जा रहा है कि उससे अधिक पतित कौन है।


(ख) भ्रमर गीत – surdas

ऊधौ, मन माने की बात।

दाख छौहरा छाँड़ि, अमृतफल, विषकीरा विष खात।

ज्यों चकोर कौं दैइ कपूर कोउ, तजि, अंगार अघात ।

मधुप करत धर कोरि काठ मैं, बँधत कमल के पात।

ज्यौं पतंग हित जानि आपनौ, दीपक सों लपटात ।

‘सूरदास’ जाकौ मन जासौं सोई ताहिं सुहात ॥

 

प्रसंग- ‘भ्रमरगीत’ प्रसंग के इस पद में गोपिकाएँ कृष्ण के प्रति अपनी अनन्य निष्ठा को अनेक दृष्टांतों से पुष्ट करती हैं।

भावार्थ -उद्धव, प्रेम संबंध तो मन की रुचि का विषय है जिसका मन जिसमें रमता है, वही उसे प्रिय लगता है। विष-कीट अंगूर, छुहारा आदि सुस्वाद फल छोड़कर विष खाना ही पसंद करता है। चकोर क्या अंगार के स्थान पर कपूर से तृप्त हो सकेगा ? भौंरा नए काठ में छिद्र कर लेता है। किंतु कमल के संपुट में स्वेच्छा से है बंद हो जाता है। शलभ को दीपक की ज्वाला में जल मरने में ही सुख मिलता है। सारी प्रियता मन के मान लेने पर निर्भर है। है


( ग ) गोकुल लीला – surdas

सुत-मुख देखि जसोदा फूली ।

हरषति देखि दूध की टुँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली ।

बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुंदर सुखदाई ।

तनक- तनक सी इध-देंतुलिया, देखौ, नैन सफल करौ आई।

आनंद सहित महर तब आए, मुख चितवत दोउ नैन अघाई।

‘सूर स्याम’ किलकत द्विज देख्यौ, मनो कमल पर बिज्जु जमाई ॥

सोभित कर नवनीत लिए ।

घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किये ।

चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिये।

लट-लटकनि मनु मत्त मधुप-गन, मादक मधुहिं पिए।

कठुला-कंठ, बज्र केहरि-नख, राजत रुचिर हिए।

धन्य ‘सूर’ एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए ॥


kabir के मनमोहक दोहे पढ़ें – क्लिक करें 


surdas ke pad class 10

( surdas ke pad class 10 CBSE ) | surdas ka jivan parichay  | Surda

सूरदास के पद भारत में कक्षा दसवीं में भी पढ़ाई जाती है। आइये इन पदों को भी जानने का और समझने का प्रयास करते हैं। सगुण भक्तिधारा के प्रमुख रचनाकारों में सूरदास जी का महत्वपूर्ण स्थान है। इनके पदों में गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति गहरा अनुराग प्रकट हुआ है। प्रस्तुत पदों में श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनके वियोग में व्याकुल गोपियों का वर्णन है। वे योग का संदेश लेकर आने वाले उद्धव को तरह-तरह के उपालंभ देती हैं।

 

surdas-ke-pad-class-10

 

भाव – पहले पद में गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करते हुए कहती है-हे उद्धव! तुम बहुत सौभाग्यशाली हो, जिसने अपने जीवन में कभी प्रेम नहीं किया। केवल हम ही नासमझ हैं, जो कृष्ण के प्रेम में दिन-रात मग्न रहती हैं। उनके प्रेम से अलग होना अब हमारे वश में नहीं है, क्योंकि जिसप्रकार चाँटी गुड़ से चिपकी रहती है, उसी प्रकार हम भी श्रीकृष्ण के प्रेम में लिपटी हुई है।

व्याख्या – गोपियाँ व्यंग्य करती हैं और उधौ को कह रही है कि तुम तो बड़े भाग्यवान हो। तुम हमेशा प्रेम रूपी बंधन से दूर रहे हो। तुमने कभी प्रेम के खिचाव को जाना नहीं है। तुम्हारा मन कभी कृष्ण के प्रेम में डूबा नहीं है। तुम तो जल में पलने वाले कमल के पत्तों के समान हो जो जल में रहकर भी उसके दाग-धब्यों से बचा रहता है। उसी प्रकार तुमने कृष्ण के संग रहकर भी कभी उससे प्रेम नहीं किया।

आगे कहती हैं कि जिस प्रकार जल को मटकी में तेल की बूँद रहती है। वह जल में रहकर भी अपने ऊपर जल का प्रभाव नहीं आने देती, उसी प्रकार तुम भी कृष्ण के संग रहकर उससे अछूते रहे हो। तुमने कभी उसके प्रेम को अपने मन में आने नहीं दिया। आपने अच्छा ही किया, तुमने कभी प्रेम की नदी में पाँव नहीं रखा और  न ही तुम्हारी दृष्टि कृष्ण के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध हुई। हम तो भोली भाली गोपियाँ है जो कृष्ण प्रेम में इस प्रकार लिपट गई है जैसे प्रकार गुड़ के साथ चीटियाँ लिपट जाती है।


 

भाव – दूसरे पद में गोपियाँ कृष्ण को निष्ठुर बताती हुई उद्धव से कहती है-हम तो कृष्ण के आने की आस से ही अपने मन को सँभाले बैठो भाँ परंतु कृष्ण ने स्वयं न आकर यह योग संदेश भेजा है, जिसे सुनकर हमारे साँसों की डोर हमारे हाथ से छूटती जा रही है। उनके दर्शन के लिए ही हमारी साँसें अटकी हुई थीं। कृष्ण के इस वियोग संदेश को सुनकर अब किसी प्रकार का धैर्य नहीं रखा जाता।

व्याख्या – गोपियाँ बहुत ही व्याकुल लग रही हैं व्याकुल होकर वह कृष्ण के मित्र ऊधौ को उलाहना देती हुई कहती हैं-ऊधौ! हमारे मन की प्रेम-भावना मन में ही रह गई है। हमें कृष्ण से प्रेम नहीं मिला, न ही उसके अभाव में हम अपनी भावना व्यक्त कर सकीं। अब तुम्हीं बताओ, हम अपनी यह व्यथा किसे जाकर कहें? प्रेम की पीड़ा को कहा भी तो नहीं जा सकता। हम अब तक कृष्ण के आने की अवधि को अपने प्राणों का आधार बनाए हुए थीं।

आगे वे कहती हैं कि हम तन और मन की व्यथा सह रही थीं। परंतु अब तुम्हारे द्वारा दिए गए इस योग-संदेश को सुन-सुन हमारी विरह-व्यथा और अधिक भड़क उठी है। हम विरह की ज्वाला में जली जा रही हैं। हमारा दुर्भाग्य देखो, हम जिधर से अपनी रक्षा के लिए सहारा चाह रही थीं, उधर से ही योग-साधना की धारा बही चली आ रही है। अर्थात् हम चाह रही थीं कि कृष्ण हमसे आकर मिलेंगे और हमारी प्रेम-भावना संतुष्ट होगी, परंतु उन्होंने तो उलटे हमारे लिए योग-मार्ग का सिद्धांत भेज दिया, जो हमें सदा-सदा के लिए कृष्ण से दूर करता है। सूरदास गोपियों के माध्यम से कह रहे हैं-अब तो कृष्ण ने सारी लोक-मर्यादाएँ तज दी हैं। वे कहती हैं कि कृष्णा ने हमारा प्रेम निभाने की बजाय हमें धोखा दिया है। अब हम धैर्य कैसे धारण करें? लोक मर्यादा सब कुछ समाप्त हो गई हैं।


 

भाव -तीसरे पद में गोपियाँ कृष्ण को अपना जीवनाधार बताते हुए कहती है कि जिस प्रकार हारिल पक्षी अपने पंजे में लकड़ी पकड़े रहता उसे छोड़ता नहीं, उसी प्रकार वे दिन-रात कृष्ण का नाम रटती रहती है। उन्हें योग का संदेश कड़वी ककड़ी के समान कड़वा लगता है। ये हैं- योग का मार्ग उन्हीं के लिए ठीक है, जिनके मन चकरी के समान चलायमान हो।

व्याख्या – गोपियाँ व्याकुल होकर ऊधौ को कहती हैं-ऊधौ! हमारे लिए हरि हारिल के पंजों में थामी हुई लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी लकड़ी को किसी हाल में नहीं छोड़ता, उसी भाँति हम भी कृष्ण को दृढ़ता से थामे हुए हैं। हमने मन से, कर्म से, वचनों से कृष्ण को हृदय में दृढ़ता से बसाया हुआ है। गोपियाँ सोते जागते  , रात-दिन, यहाँ तक कि सपने में भी कन्हैया-कन्हैया नाम की रट लगाए रहती हैं।

गोपियाँ कहती हैं कि हम जब तुम्हारे मुँह से योग-साधना की बात सुनती हैं तो हमें तुम्हारा यह संदेश कड़वी ककड़ी के समान कड़वा और अरुचिकर लगता है। वे कहती हैं कि तुम तो हमारे लिए ऐसी बीमारी ले आए हो, जो हमने न तो कभी देखी, न सुनी और न कभी इसका व्यवहार करके देखा। गोपियाँ कहने लगीं-ऊधौ! तुम यह योग-साधना का संदेश उन लोगों को दो जिनके मन विचलित हैं, जिनकी कहीं कोई आस्था नहीं है। हम तो पूर्ण रूप से कृष्ण की दीवानी हैं। हम यह योग-संदेश क्या करेंगी?


भाव -चौथे पद में गोपियाँ कृष्ण पर व्यंग्य करती हुई कहती है-ऐसा प्रतीत होता है कि कृष्ण पूर्ण राजनीतिज्ञ हो गए हैं। वे चतुर तो पहले हो है,थे, परन्तु अब तो राजनीति के दाँव-पेंच भी सीख गए हैं। पहले के राजनीतिज्ञ जनता की भलाई के लिए कार्य करते थे, परन्तु अब तो वे स्वयं ही अन्याय करने लगे हैं। कृष्ण योग का संदेश भेजकर हम पर अन्याय ही कर रहे हैं। उनका यह व्यवहार राजधर्म के बिल्कुल विपरीत है।

व्याख्या – अंतिम पद में  गोपियाँ ऊधौ से कहती हैं- ऊधौ! लगता है, श्रीकृष्ण राजनीति पढ़ आए हैं। अरे भँवरे ऊधौ! मैं तो तुम्हारी बात कहते (सुनते) ही समझ गई थी कि दाल में कुछ काला है। हम सब समाचार जान गई हैं। हम कृष्ण की छल-भरी राजनीति समझ गई हैं। अरे भँवरे! एक तो तुम पहले से ही चतुर चालाक थे। अब तुम अपने गुरु कृष्ण से राजनीति के ग्रंथ भी पढ़ आए हो। अतः तुम्हारी हर बात में छल-कपट भर गया है। हम तो कृष्णा की बुद्धि से परिचित है। उन्होंने हमारे लिए योग का संदेश भेजकर कितनी समझदारी का कार्य किया  है। पर वे गलत हैं, हम उन्हें कभी नहीं भूल सकते।

गोपियाँ कहती है कि हे ऊधौ! पहले तो लोग सबका उपकार किया करते थे। अब हमारा विस्वास तुमपर से उठ गया है। अब हमारा मन हमारे पास आ गया, जिसे श्रीकृष्ण यहाँ से जाते समय चुरा ले गए थे। परंतु हमें यह समझ नहीं आता कि जो कृष्ण औरों को अन्याय से बचाते रहे हैं, वे स्वयं हम पर अन्याय क्यों कर रहे हैं? वे हमें अपना प्रेम न देकर योग-संदेश क्यों भेज रहे हैं। सूर के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं-ऊधौ! कृष्णा से कहिये की अपना राजधर्म निभाते हुए हमें दर्शन दें।

Leave a Comment